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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/२०७

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[जाना चाहती है, भिक्षु बड़ा भयानक गर्जन करता है, चन्द्रलेखा घबड़ा कर गिर पड़ती है] प्रेमानन्द-(निकल कर)-डरो मत, डरो मत; मैं आ गया। (प्रेमानन्द भिक्षु को पकड़ कर उसका गला दवाता है, वह चिल्लाता है)-हाय हाय ! यहाँ तो कोई यक्ष है । छोड़ दे, अब मैं ऐसा न करूंगा। प्रेमानन्द-(भिक्षु को चन्द्रलेखा के सामने लाता हुआ)-बेटी ! डरो मत, यह पाखण्ड भिक्षु था। भगवान् किसी को पाप की आज्ञा नही देते, धैर्य धरो। [तलवार लिये हुए विशाख का प्रवेश] विशाख -गुरुदेव ! प्रणाम । प्रिये, यह क्या ! प्रेमानन्द-यह दुष्ट भिक्षु चन्द्रलेखा को डरा कर राजकीय प्रलोभन देता था। मैं यही था, चन्द्रलेखा-सी सती का इन्द्र भी अपकार नही कर सकता। किन्तु अब इसे अकेली पूजा को न भेजना। विशाख-क्यों रे दुष्ट । काट लूं तेरा मुड़ा हुआ सिर ! [तलवार उठाता है, भिक्षु गिर पड़ता है, प्रेमानन्द उसे रोक लेता है] प्रेमानन्द-क्षमा सर्वोत्तम दण्ड है विशाख ! यवनिका तृतीय अङ्क प्रथम दृश्य [स्थान-वितस्ता का तट, नरदेव और महापिंगल] नरदेव - पिंगल ! तुम जानते हो कि प्रतिरोध से बड़ी शक्तियां रुकती नही प्रत्युत उनका वेग और भी भयानक हो जाता है। वही अवस्था मेरे प्रेम की है। इसने कोमलता के स्थान पर कठोरता का आश्रय लिया है। माधुर्य छोड़ कर भयानक रूप धारण किया है। महापिंगल-किन्तु मुझे तो प्रेम की जगह यह कोई प्रेत समझ पड़ता है, जो आपके हृदय पर अधिकार जमाये है ? नरदेव - क्या मेरे प्रेम की तू अवहेलना क्यिा चाहता है ? क्या उसकी परीक्षा लिया चाहता है ? अभी मै उसकी आज्ञा से, यह अपनी कटार अपने वक्षस्थल में उतार सकता हूँ। विशाख : १९१