पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/२३९

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न का वासवी -नाथ ! मैं आपसे छिपाती थी, फिर भी कहना ही पड़ा कि हम लोग वानप्रस्थ आश्रम में भी स्वतन्त्र नहीं रखे गये हैं। बिम्बिसार-(निःश्वास लेकर)-ऐसा !--जो कुछ हो- [गाते हुए भिक्षुओं का प्रवेश धरो कहकर इसको 'अपना'। यह दो दिन है सपना ॥ न धरो॥ वैभव का बरसाती नाला, भरा पहाड़ी झरना। बहो, बहाओ नही अन्य को, जिससे पड़े कलपना॥ न धरो० ॥ दुखियों का कुछ आँस पोछ लो, पड़े न आहें भरना। लोभ छोड़कर हो उदार, बस, एक उमी को जपना ॥ न धरो०।। विम्बिसार-देवि, इन्हें कुछ दो- वासवी-और तो कुछ नही है-(कंकण उतार कर देती है) प्रभु ! इस स्वर्ण और रत्नों का आँखों पर नडा रंग रहता है, जिससे मनुष्य अपना अस्थि-चर्म का शरीर तक नहीं देखने पाता [भिखारी जाते हैं] दृश्या न्त र - पंचम दृश्य [कौशाम्बी में मागन्धी का मन्दिर] मागन्धी-(स्वगत)-इम रूप का इतना अपमान ! सो भी एक दरिद्र भिक्षु के हाथ ! मुझमे ब्याह करना अस्वीकार क्यिा ! यहाँ मैं राजगनी हुई, फिर भी वह ज्वाला न गयी, यहां रूप का गौरव हुआ, तो धन के अभाव से दरिद्र-कन्या होने के अपमान की पन्त्रणा मे पिम रही हूँ ! अच्छा इसका भी प्रतिशोध लूंगी, अब से पही मेरा व्रत हुआ। उदयन राजा है, तो मैं भी अपने हृदय की रानी हूँ। दिखला दूंगी कि स्त्रियां क्या कर सकती हैं ! [एक दासी का प्रवेश दासी-देवि क्या आज्ञा है ? मागधी-तू ही न गयी थी गौतम का समाचार लाने, वह आनकल पद्मावती के मन्दिर में भिक्षा लेने आता है न ? दासी 1-आता है स्वामिनी ! वह घण्टों महल में बैठकर उपदेश करता है। महाराज भी वही बैठकर उसकी वक्तृता सुनते है, बड़ा आदर करते हैं । अजातशत्रु: २१९