पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/२५२

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उदयन-क्या ? षड्यन्त्र ! अरे, क्या मैं पागल हो गया था! देवि अपराधे भमा हो (पद्मावती के सामने घुटने टेकता है।) पद्मावती-उठिये उठिये महाराज ! दासी को लज्जित न कीजिये। वासवदत्ता-यह प्रणय-लीला दूसरी जगह होगी-चलो हटो, यह देखो लपट फैल रही है। [वासवदत्ता दोनों का हाथ पकड़कर खींचकर खड़ी हो जाती है। पर्दा हटता है-मागन्धी के महल में आग लगी हुई दिखाई पड़ती है] [यवनिका] द्वितीय अंक प्रथम दृश्य [मगध में अजातशत्रु की राजसभा] अजातशत्रु-यह क्या सच है समुद्र ! मैं यह क्या सुन रहा ! प्रजा भी ऐसा कहने का साहस कर सकती है ? चीटी भी पंख लगाकर बाज के साथ उड़ना चाहती हैं ! 'राज-कर मैं न दूंगा'-यह बान जिस जिह्वा से निकली, बात के साथ ही वह भी क्यों न निकाल ली गयी ? काशी का दण्डनायक कौन मूर्ख है ? तुमने उसी समय उसे बन्दी क्यों नही किया ? समुद्रदत्त-देव ! मेरा कोई अपराध नही। काशी मे बड़ा उपद्रव मचा था। शैलेन्द्र नामक विकट डाकू के आतंक से लोग पीड़ित थे। दण्डनायक ने मुझसे कहा कि काशी के नागरिक कहते हैं कि हम कोसल की प्रजा है, और""। अजातशत्रु-कहो, कहो रुकते क्यों हो ? समुद्रदत्त- और हम लोग उस अत्याचारी राजा को कर न देगे जो अधर्म के बल से पिता के जीते ही सिंहासन छीनकर बैठ गया है। और, जो पीड़ित प्रजा की रक्षा भी नही कर सकता--उनके दुखो को नही सुनता तथा। अजातशत्रु-हाँ, हाँ, कहो, सकोच न करो। समुद्रदत्त-सम्राट् ! इसी तरह की बहुत-सी बाते वे कहते है, उन्हे सुनने से कोई लाभ नही । अब, जो आज्ञा दीजिये वह किया जाय । अजातशत्रु-ओह ! अब समझ मे आया। यह काशी की प्रजा का कण्ठ नही, इसमें हमारी विमाता का व्यंग्य-स्वर है। इसका प्रतिकार आवश्यक है। इस प्रकार अजातशत्रु को कोई अपदस्थ नही कर सकता । (कुछ सोचता है) २३२ :प्रसाद वाङ्मय