पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/२५६

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तीसरा सभ्य-क्या महाराज बन्दी बनाए जायेंगे ? मैं ऐसी मन्त्रणा का विरोध करता हूँ। यह अनर्थ है | अन्याय है ! देवदत्त-ठहरिये ! अपनी प्रतिज्ञा को स्मरण कीजिये और विषय के गौरव को मत भुला दीजिये। समुद्रदत्त सम्राट् बिम्बिसार को बन्दी नही बनाना चाहता, किन्तु नियन्त्रण चाहता है, सो भी किस पर, केवल वासवी देवी पर, जो कि मगध की गुप्त शत्रु हैं। इसका और कोई दूसरा सरल उपाय नहीं। यह किसी पर प्रकट करके सम्राट् का निरादर न किया जाय, किन्तु युद्धकाल की राज-मर्यादा कहकर अपना काम निकाला जाय, क्योकि ऐसे समय मे राजकुल की विशेष रक्षा होनी चाहिये। तीसरा सभ्य-तब मेरा कोई विरोध नहीं । अजातशत्रु-फिर, आप लोग आज की इस मन्त्रणा से सहमत हे ? सभ्यगण-हम मबको स्वीकार है । अजातशत्रु-तथास्तु । [सब जाते है] दृश्यान्तर द्वितीय दृश्य [स्थान-पथ, मार्ग में बन्धुल] बन्धुल-(स्वगत)-इस अभिमानी राजकुमार से तो मिलने की इच्छा भी नही थी, किन्तु क्या करूँ, उसे अस्वीकार भी तो नहीं कर सका। कोसल-नरेश ने जो मुझे काशी का मामन्त बनाया है, वह मुझे अच्छा नही लगता, किन्तु राजा की आशा । मुझे तो सरल और सैनिक-जीवन ही रुचिकर है । सामन्त का यह आडम्बर- पूर्ण पद कपटाचरण की सूचना देता है। महाराज प्रसेनजित् ने कहा कि 'शीघ्र ही मगध काशी पर अधिकार करना चाहेगा, इसलिये तुम्हारा वहां जाना आवश्यक है।' यहां का दण्डनायक तो मुझसे प्रसन्न है। अच्छा देखा जायगा -(टहलता है) यह समझ मे नही आता कि एकान्त मे कुमार क्यो मुझसे मिलना चाहता है ! [विरुद्धक का प्रवेश विरुद्धक-सेनापते ! कुशल तो है ? बन्धुल--कुमार की जय हो ! क्या आज्ञा है ? आप अकेले क्यो हैं ? विरुखक-मित्र बन्धुल ! मैं तो तिरस्कृत राज-सन्तान हूँ। फिर अपमान सहकर, चाहे वह पिता का सिंहासन क्यो न हो, मुझे रुचिकर नहीं। २३६ : प्रसाद वाङ्मय