पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/२७१

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मल्लिका-सम्राट् ! क्या आपको मैंने बन्दी कर रखा है ? यह कैसा प्रश्न ! बड़ी प्रसन्नता से आप जा सकते हैं ! प्रसेनजित्-नही, देवि ! इस दुराचारी के पैरों में तुम्हारे उपकारों की बेड़ी और हाथों में क्षमा की हथकड़ी पड़ी है। जब तक तुम कोई आज्ञा देकर इसे मुक्त नहीं करोगी, यह जाने में असमर्थ है। मल्लिका |--कारायण ! यह तुम्हारे सम्राट् है-जाओ, इन्हें राजधानी तक सकुशल पहुँचा दो, मुझे तुम्हारे बाहुबल पर भरोसा है, और चरित्र पर भी। प्रसेनजित्-कौन कारायण, सेनापति बन्धुल का भागिनेय ? दीर्घकारायण-हाँ श्रीमान् । वही कारायण अभिवादन करता है । प्रसेनजित् -कारायण ! माता ने आज्ञा दी है, तुम मुझे कल तक पहुंचा दोगे? देखो जननी की यह मूर्ति ! विपद में बच्चे की तरह उसने मेरी सेवा की है। क्या तुम इममें भक्ति करते हो? यदि तुमने इन दिव्य चरणो की भक्ति पायी है, तो तुम्हारा जीवन धन्य है । (मल्लिका का पैर पकड़ता है) मल्लिका-उठिये सम्राट् ! उठिये। मर्यादा भंग करने का आपको भी अधिकार नही है । प्रसेनजित्- यदि आज्ञा हो तो मै दीर्घकारायण को अपना सेनापति बनाऊँ और इमी वीर में स्वर्गीय सेनापति बन्धुल की प्रतिकृति देखकर अपने कुकर्म का प्रायश्चित करूं। देवि ! मै स्वीकार करता हूँ कि महात्मा बन्धुल के साथ मैंने घोर अन्याय किया है। और आपने क्षमा करके मुझे कठोर दण्ड दिया है। हृदय में इसकी बड़ी ज्वाला है। देवि ! एक अभिशाप तो दे दो, जिसमे नरक की ज्वाला शान्त हो जाय और पापी प्राण निकलने में सुख पावे । मल्लिका- अतीत के वज्र-कठोर हृदय पर जो कुटिल रेखा-चित्र खिंच गये हैं, वे क्या कभी मिटेंगे ? यदि आपकी इच्छा है तो वर्तमान मे कुछ रमणीय सुन्दर चित्र खीचिये, जो भविष्य मे उज्ज्वल होकर दर्शको के हृदय को गान्ति दें। दूसरों को मुखी बनाकर सुख पाने का अभ्यास कीजिये । प्रसेनजित्-आपका आशीर्वाद सफल हो ! चलो कारायण ! [दोनों नमस्कार करके जाते हैं] मल्लिंका-(प्रार्थना करती है) अधीर हो न चित्त विश्व-मोह-जाल में । यह वेदना-विलोल-बीचि-मय समुद्र है । है दुःख का भंवर चला कराल चाल मे। वह भी क्षणिक, इसे कही 'काव है नही ।। सब लौट जायँगे उसी अनन्त काल में ।-अधीर०॥ मजातशत्रु : २५१