आपस विरुद्धक-और कोसल-नरेश को पाकर भी मेरे कहने से छोड़ दिया, क्यों? पदि मेरी मन्त्रणा लेते, तो आज तुम मगध में सम्राट् होते और मैं कौसल के सिंहासन पर बैठकर सुख भोगता। किन्तु उस दुष्टा मल्लिका ने तुम्हें"। अजातशत्रु-हां उसमें तो मेरा ही दोष था। किन्तु अब तो मगध और कोसल में शत्रु हैं, फिर हम तुमपर विश्वास क्यों करें ? विरुद्धक-केवल एक बात विश्वास करने की है। यही कि तुम कोसल नहीं चाहते और मैं काशी-सहित मगध नहीं चाहता। देखो, सेनापति दीर्घ कारायण ही कोसल की सेना का नेता है। वह मिला हुआ है, और विशाल सम्मिलित वाहिनी क्षुब्ध समुद्र के समान गर्जन कर रही है। मैं खड्ग लेकर शपथ करता हूँ कि कौशाम्बी की सेना पर आक्रमण करूंगा और दीर्घकारायण के कारण जो निर्बल कोसल सेना है उस पर तुम; जिसमें तुम्हें विश्वास बना रहे। यही समय है, विलम्ब ठीक नही। छलना-कुमार विरुद्धक ! क्या तुम अपने पिता के विरुद्ध खड़े होगे? और किस विश्वास पर विरुद्धक-जब मैं पदच्युत और अपमानित व्यक्ति हूँ, तब मुझे अधिकार है कि सनिक कार्य में किसी का भी पक्ष ग्रहण कर सकू, क्योंकि यही क्षत्रिय की धर्मसम्मत आजीविका है । हां, पिता से मै स्वयं नही लडूंगा। इसीलिये कौशाम्बी की सेना पर मैं आक्रमण करना चाहता हूँ। छलना- अब अविश्वास का समय नहीं है । रणवाद्य समीप ही सुनाई पड़ते हैं। अजातशत्रु-जैसी माता की आज्ञा । [छलना तिलक और आरती करती है] [नेपथ्य में रणवाद्य, विरुद्धक और अजात को युद्ध-यात्रा] [य व नि का] तृतीय अंक प्रथम दृश्य [मगध के राजभवन में छलना और देववत्त] छलना-धूतं ! तेरी प्रवञ्चना से मैं इस दशा को प्राप्त हुई। पुत्र बन्दी होकर विदेश चला गया और पति को मैंने स्वयं बन्दी बनाया ! पाखण्ड, तूने ही यह चक्र रचा है। २६० प्रसाद वाङ्मय
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