देवदत्त-नारी ! क्या तुझे राजशक्ति का धमण्ड हो गया है, जो परिव्राजकों से इस तरह बातें करती है ! तेरी राज्यलिप्सा और महत्त्वाकांक्षा ने ही तुझसे सब कुछ कराया, तू दूसरे पर क्यों दोषारोपण करती है, क्या मुझे ही राज्य भोगना है ? छलना-पाखण्ड ! जब तूने धर्म के नाम पर उत्तेजित करके मुझे कुशिक्षा दी, मैं भूल में थी। गौतम को कलंकित करने के लिये कौन श्रावस्ती गया था ? और किसने मतवाला हाथी दौड़ाकर उनके प्राण लेने की चेष्टा की थी ? ओह ! मैं किस भ्रान्ति में थी ! जी चाहता है कि इस नर-पिशाच-मूर्ति को अभी मिट्टी में मिला हूँ ! प्रतिहारी ! प्रतिहारी-(प्रवेश करके)-महादेवी की जय हो | क्या आज्ञा है ? छलना-अभी इस मुडिये को बन्दी बनाओ और वासवी को पकड़ लाओ ! [प्रतिहारी इंगित करता है, देवदत्त बन्दी होता है] देवदत्त-इसका फल तुझे मिलेगा। छलना-घायल बाधिनी को भय दिखाता है ! वर्षा की पहाडी नदी को हाथों से रोक लेना चाहता है ! देवदत्त ! ध्यान रखना, इस अवस्था मे नारी क्या नहीं कर सकती है ! अब तेग अभिशाप मुझे नही डरा सकता। तू अपने कर्म भोगने के लिये प्रस्तुत हो जा! [वासवी का प्रवेश छलना-अब तो तुम्हारा हृदय सन्तुष्ट हुआ वासवी-क्या कहती हो छलना ? अजात बन्दी हो गया तो मुझे सुख मिला, यह बात कैसे तुम्हारे मुख से निकली | क्या वह मेरा पुत्र नही है ? छलना-मीठे मुंह की डायन ! अब तेरी बातो से ठण्ढी नहीं होने की ! मोह ! इतना साहस, इतनी कूट-चातुरी ! आज मैं उसी हृदय को निकाल लूंगी, जिसमें यह सब भरा था। वासवी सावधान ! मै भूखी सिहिनी हो रही हूँ। वासवी-छलना, उसका मुझे डर नही है। यदि तुम्हे इसमे कोई सुख मिले, तो तुम करो। किन्तु एक बात और विचार लो-क्या कोसल के लोग जब मेरी यह अवस्था सुनेगे, तो अजात को और शीघ्र मुक्त कर देने के बदले कोई दूसरा काण्ड न उपस्थित करेगे? छलना-तब क्या होगा? वासवी-जो होगा वह तो भविष्य के गर्भ मे है, किन्तु मुझे एक बार कोसल अनिच्छापूर्वक भी जाना ही होगा और अजात को ले आने की चेष्टा करनी ही होगी। छलना-यह और भी अच्छी रही-जो हाथ का है उसे भी जाने दूं! क्यों वासवी ! पद्मावती को पढ़ा रही हो ! वासवी-बहिन छलना ! मुझे तुम्हारी बुद्धि पर खेद होता है। क्या मैं अपने ? अजातशत्रु : २६१
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