पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/२८२

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प्राणों को डरती हूँ; या सुख-भोग के लिये जा रही हूँ ? ऐसी अवस्था में आर्यपुत्र को छोड़कर मैं चली जाऊँगी, ऐसा भी तुम्हे अब तक विश्वास है ? मेरा उद्देश्य केवल विवाद मिटाने का है। छलना-इसका प्रमाण ? वासवो-प्रमाण आर्यपुत्र है । छलना, चौको मत । तुम भी उन्ही की परिणीता पत्नी हो, तब भी तुम्हारे विश्वास के लिए मैं उन्हे तुम्हारी देख-रेख मे छोड जाऊंगी। हाँ, इतनी प्रार्थना है कि उन्हे कोई कष्ट न होने पावे, और क्या कहूँ, वे ही तुम्हारे भी पति है। हां, देवदत्त को मुक्त कर दो। चाहे इसने कितना भी हम लोगों का अनिष्टचिन्तन किया हो, फिर भी परिव्राजक मार्जनीय है । छलना-(प्रहरियों से)-छोड दो इसको, फिर काला मुख मगध में न दिखावे । [प्रहरी छोड़ते हैं, देवदत्त जाता है] वासवी-देखो, राज्य मे आतक न फैलने पावे। दृढ होकर मगध का शासन करना । किसी को कष्ट भी न हो। और प्यारी छलना | यदि हो सके तो आर्यपुत्र की सेवा करके नारीजन्म सार्थक कर लेना। छलना-वासवी ! वहिन ! -(रोने लगती है)-मेरा कुणीक मुझे दे दो, मैं भीख मांगती हूँ। मैं नही जानती थी कि निसर्ग से इतनी करुणा और इतना स्नेह, सन्तान के लिए, इस हृदय मे सञ्चित था। यदि जानती होती, तो इस निष्ठुरता का स्वांग न करती। वासवी-रानी ! यही जो जानती कि नारी का हृदय कोमलता का पालना है, दया का उद्गम है, शीतलता की छाया है और अनन्य-भक्ति का आदर्श है, तो पुरुषार्थ का ढोग क्यो करती । रो मत बहिन ! मैं जाती हूँ तू यही समझ कि कुणीक ननिहाल गया है। छलना-तुम जानो । (दोनों का प्रस्थान) दृश्या न्त र . - द्वितीय दृश्य [कोसल के प्रासाद से लगा बन्दीगृह, बाजिरा का प्रवेश] बाजिरा-(आप-ही-आप) -क्या विप्लव हो रहा है। प्रकृति से विद्रोह करके नये साधनो के लिये वितना प्रयास होता है | अन्धी जनता अंधेरे मे दौड रही है। इतनी छीना-झपटी, इतना स्वार्थ-साधन कि सहज-प्राप्य अन्तरात्मा की सुख- शान्ति को भी लोग खो बैठते हैं ! भाई भाई से लड़ रहा है, पुत्र पिता से विद्रोह २६२ :प्रसाद वाङ्मय