पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/२८३

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कर रहा है, स्त्रियाँ पतियों से प्रेम नही उन पर शासन करना चाहती हैं ! मनुष्य, मनुष्य के प्राण लेने के लिए शस्त्रकला को प्रधान गुण समझने लगा है और उन गाथाओ को लेकर कवि कविता करते है, बर्बर रक्त मे ओर भी उष्णता उत्पन्न करते हैं । राजमन्दिर बन्दीगृह में बदल गये हैं | कभी सौहार्द से जिसका आतिथ्य कर सकते थे, उसे बन्दी बना कर रखा है। सुदर राजकुमार ! कितनी सरलता और निर्भीकता इस विशाल भाल पर अंकित है । अहा | जीवन धन्य हो गया है । अन्त करण मे एक नवीन स्फूर्ति आ गयी है। एक नवीन संसार इसमे बन गया है । यही यदि प्रेम है तो अवश्य स्पृहणीय है, जीवन की सार्थकता है। कितनी सहानुभूति, क्तिनी कोमलता का आनन्द मिलने लगा है ! (ठहर कर सोचती हुई) एक दिन पिताजी का पैर पकड कर प्रार्थना करूंगी कि इस बन्दी को छोड दो। किसी राष्ट्र का शासक होने के बदले इसे प्रेम के शासन मे रहने से मै प्रसन्न रहूंगी। मनोरम सुकुमार वृत्तियों का छायापूर्ण हृदय मे आविर्भाव-तिरोभाव होते देखूगी और आँखे बन्द कर लूंगी। (गाती है) हमारे जीवन का उल्लास, हमारे जीवन धन का रोष । हमारी करुणा के दो बूंद मिले एकत्र, हुआ सतोष ॥ होष्ट को कुछ भी रुकने दो, न यो चमका दो अपनी कान्ति । देखने दो क्षण भर भी तो, मिले सौन्दर्य देखकर शान्ति ॥ नही तो निष्ठुरता का अन्त, चला दो चपल नयन के बाण । हृदय छिद जाय विक्ल बेहाल, वेदना से हो उसका त्राण ॥ [खिड़की खुलती है, बन्दी अजातशत्रु दिखाई देता है] अजातशत्रु -इस श्यामा रजनी मे चन्द्रमा की सुकुमार विरण-सी तुम कौन हो ? सुन्दरी, कई दिन मैंने देखा, मुझे भ्रम हुआ कि यह स्वप्न है | किन्तु नही, अब मुझे विश्वास हुआ कि भगवान् ने करुणा की मूर्ति मेरे लिये भेजी है और इस बन्दीगृह मे भी कोई उसकी अप्रकट इच्छा कौशल कर रही है। बाजिरा-राजकुमार | मेरा परिचय पाने पर तुम घृणा करोगे और फिर मेरे आने पर मुंह फेर लोगे-तब मैं बडी व्यथित रहूँगी । हम लोग इसी तरह अपरिचित रहें । अभिलाषाये नये रूप बदले, किन्तु वे नीरव रहे। उन्हे बोलने का अधिकार न हो । बस, तुम हमे एक करुण दृष्टि से देखो और मैं कृतज्ञता के फूल तुम्हारे चरणो पर चढाकर चली जाया करूंगी। अजातशत्र-सुन्दरि । यह अभिनय कई दिन हो चका, अब धैर्य नही रुकता है। तुम्हे अपना परिचय देना ही होगा। बाजिरा-राजकुमार ! मेरा परिचय ५ कर तुम सन्तुष्ट न होगे, नही तो मै छिपाती क्यों ? अजातशत्रु : २६३