पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/२९२

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प्रसेनजित्-देवि ! आपकी असीम अनुकम्पा है, जो मुझ जैसे अधम व्यक्ति पर इतना स्नेह ! पतितपावनी, तुम धन्य हो ! मल्लिका-किन्तु महाराज ! मेरी एक प्रार्थना है। प्रसेनजित्-आपकी आज्ञा शिरोधार्य है भगवती ! मल्लिका-आपकी इस पत्नी, परित्यक्ता शक्तिमती का क्या दोष है ? इस शुभ अवसर पर यह विवाद उठाना यद्यपि ठीक नहीं है तो भी प्रसेनजित-इसका प्रमाण तो वह स्वयं है। उसने क्या-क्या नहीं किया यह क्या किसी से छिपा है ? मल्लिका-किन्तु इसके मूल कारण तो महाराज ही हैं। यह तो अनुकरण करती रही-पथा राजा तथा प्रजा-जन्म लेना तो इसके अधिकार मे नही था, फिर आप इस अबला पर क्यों ऐसा दण्ड विधान करते हैं ? प्रसेनजित्-मै इसका क्या उत्तर दूं देवि ! शक्तिमती-वह मेरा ही अपराध था आर्यपुत्र | क्या उसके लिए क्षमा नही मिलेगी-मैं अपने कृत्यो पर पश्चात्ताप करती हूँ। अब मेरी सेवा मुझे मिले, उससे मैं वंचित न होऊँ, यह मेरी प्रार्थना है । (प्रसेनजित् मल्लिका का मुंह देखता है) मल्लिका-क्षमा करना ही होगा महाराज ! और उसका बोझ मेरे सिर पर होगा। मुझे विश्वास है कि यह प्रार्थना निष्फल न होगी। प्रसेनजित्-मैं उसे कैसे अस्वीकार कर सकता हूँ ! (शक्तिमती का हाथ पकड़कर उठाता है) मल्लिका-मैं कृतज्ञ हुई सम्राट् ! क्षमा से बढ़कर दंड नहीं है, और आपकी राष्ट्रनीति इसी का अवलम्बन करे, मैं यही आशीर्वाद देती हूँ। किन्तु एक बात और भी है। प्रसेनजित् - वह क्या ? मल्लिका-मैं आज अपना सब बदला चुकाना चाहती हूँ, मेरा भी कुछ अभियोग है। प्रसेनजित्-वह बड़ा भयानक है ! देवि, उसे तो आप क्षमा कर चुकी हैं। अब? मल्लिका -तब आप यह स्वीकार करते है कि भयानक अपराध भी क्षमा कराने का साहस मनुष्य को होता है ? प्रसेनजित्-विपन्न की यही आशा है । तब भी। मल्लिका -तब भी ऐसा अपराध क्षमा किया जाता है क्यों सम्राट् ? प्रसेनजित्-मैं क्या कहूँ ? इसका उदाहरण तो मैं स्वयं हूँ ! मल्लिका-तब यह राजकुमार विरुद्धक भी क्षमा का अधिकारी है ! २७२३ प्रसाद वाङ्मय