पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/२९४

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आये हैं तुम बदलने के लिए प्रस्तुस्त नही ? क्या इस क्षणिक भव में तुम अपनी स्वतन्त्र सत्ता अनन्त काल तक बनाये रक्खोगे? और भी, क्या उस आर्य-पद्धति को तुम भूल गये कि पिता से पुत्र की गणना होती है ? राजन्, सावधान हो, इस अपनी सुयोग्य शक्ति को स्वयं कुण्ठित न बनाओ। यद्यपि इसने कपिलवस्तु में निरीह प्राणियो का वध करके बडा अत्याचार किया है और कारणवश क्रूरता भी यह करने लगा था, किन्तु अब इसका हृदय, देवी मल्लिका की कृपा से शुद्ध हो गया है। इसे तुम युवराज बनाओ। सब-धन्य है ! प्रसेनजित्-तब जैसी आज्ञा-इम व्यवस्था का कौन अतिक्रमण कर सकता है, और यह मेरी प्रसन्नता का कारण भी होगा। प्रभ, आपकी कृपा से मैं आज सर्वसम्पन्न हुआ। और क्या आज्ञा है ? गौतम-कुछ नही। तुम लोग कर्तव्य के लिये सत्ता के अधिकारी बनाये गये हो, उसका दुरुपयोग न करो। भूमण्डल पर स्नेह का, करुणा का, क्षमा का शासन फैलाओ। प्राणिमात्र मे सहानुभूति को विस्तृत करो। इन क्षुद्र विप्लवो से चौककर अपने कर्म पथ से च्युन न हो जाओ। प्रसेनजित्-जो आज्ञा, वही होगा। [अजातशत्रु उठकर विरुद्धक को गले लगाता है] अजातशत्रु-भाई विरुद्धक, मैं तुमसे ईग्या कर रहा हूँ। विरुद्धक-और मे वह दिन शीघ्र देदूंगा कि तुम भी इसी प्रकार अपने पिता से क्षमा किये गये। अजातशत्रु-तुम्हारी वाणी सत्य हो । वाजिरा-भाई विरुद्धक । मुझे क्या तुम भूल गये? क्या मेरा कोई अपराध है, जो मुझसे नही बोलते थे ? विरुद्धक-नही-नही, मै तुममे लज्जित हूँ। मैं तुम्हे सदैव द्वेष की दृष्टि से देखा करता था, उसके लिए तुम मुझे क्षमा करो। बाजिरा-नही भाई ! यही तुम्हारा अत्याचार है । [सब जाते है] वासवी-(स्वगत)-अहा ! जो हृदय विकसित होने के लिए है, जो मुख हँसकर स्नेह-सहित बाते करने के लिए है, उसे लोग कैसा बिगाड लेते है ! भाई प्रसेन, तुम अपने जीवन-भर मे इतने प्रसन्न कभी न हुए होगे, जितने आम । कुटुम्ब के प्राणियो मे स्नेह का प्रचार करके मानव इतना सुखी होता है, यह आज ही मालूम हुआ होगा। भगवान् | क्या कभी वह भी दिन आवेगा जब विश्व-भर मे एक कुटुम्ब स्थापित हो जायगा और मानव मात्र स्नेह से अपनी गृहस्थी सम्हालेंगे ? (जाती है) दृश्या न्त र ! २७४: प्रसाद वाङ्मय