पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/२९७

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1 [बुद्ध का प्रवेश, घुटने टेक कर हाथ जोड़ती है, सिर पर हाथ रखते हैं) गौतम-करणे, तेरी जय हो ! मागन्धी-(आँख खोल कर और पैर पकड़ कर)-प्रभु, आ गये ! इस प्यासे हृदय की तृष्णा मिटाने को अमृत-स्रोत ने अपनी गति परिवर्तित की इस मरु-देश में पदार्पण किया! गौतम-मागन्धी, तुम्हें शान्ति मिलेगी। जब तक तुम्हारा हृदय उस विशृंखलता में था, तभी तक यह विडम्बना थी। मागन्धी-प्रभु ! मैं अभागिनी नारी, केवल उस अवज्ञा की चोट से बहुत दिन भटकती रही। मुझे रूप का गर्व बहुत ऊँचे चढ़ा ले गया था, और अब उसने ही नीचे पटका। गौतम -क्षणिक विश्व का यह कौतुक है देवि | अब तुम अग्नि से तपे हुए हेम की तरह शुद्ध हो गयी हो । विश्व के कल्याण मे अग्रसर हो । असंख्य दुखी जीवों को हमारी सेवा आवश्यकता है। इस दुःख समुद्र मे कूद पड़ो। यदि एक भी रोते हुए हृदय को तुमने हमा दिया, तो सहस्रो स्वर्ग तुम्हारे अन्तर में विकसित होगे। फिर तुमको पर-दु.ख-कातरता मे ही आनन्द मिलेगा। विश्वमंत्री हो जायगी-विश्व-भर अपना कुटुम्ब दिखायी पड़ेगा। उठो, असंख्य आहे तुम्हारे उद्योग से अट्टहास में परिणत हो सकती है। मागन्धी 1-अन्त मे मेरी विजय हुई नाथ ! मैने अपने जीवन के प्रथम वेग में ही आपको पाने का प्रयास किया था। किन्तु यह समय ठीक भी नही था। आज मैं अपने स्वामी को, अपने नाथ को, अपना कर धन्य हो रही हूँ। गौतम-मागन्धी ! अव उन अतीत के विकारो को क्यों स्मरण करती है, निर्मल हो जा ! मागन्धी प्रभु ! मैं नारी हूँ, जीवन-भर असफल होत. आयी हूँ। मुझे उस विचार के सुख से न वञ्चित कीजिये । नाथ ! जन्म-भर की पराजय मे भी आज मेरी ही विजय हुई । पतितपावन ! यह उद्धार आपके लिए भी महत्त्व देने वाला है और मुझे तो सब कुछ। गौतम-अच्छा आम्रपाली ! कुछ खिलाओगी? मागन्धी-(आम की टोकरी लाकर रखती हुई)-प्रभु ! अब इस आम्र- कानन की मुझे आवश्यकता नही, यह संघ को समर्पित है। [संघ का प्रवेश] संघ -जय हो, अमिताभ की जय ! बुद्धं शरणं""। मागन्धी-गच्छामि। गौतम-संघं शरणं गच्छामि । (प्रस्थान) दृश्या न्त र अजातशत्रु : २७७