पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/२९९

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छलना-बेटी पमा ! चल । इसी से कहते हैं कि काठ की सौत भी बुरी होती है-देखी निर्दयता-अजात को यहाँ न आने दिया। वासवी-चल, चल, तुझे तेरा पति भी दिला दूं और बच्चा भी। यहां बैठ कर ? मुझसे लड़ मत कंगालिन (सब हँसती हुई जाती है) दृश्या न्त र नवम दृश्य [कुटीर में बिम्बिसार लेटे हुए है] [नेपथ्य से गान] चल वसन्त बाला अञ्चल मे किस घातक सौरभ से मस्त, आती मलयानिल की लहरे जब दिनकर होता है अस्त । मधुकर से कर सन्धि, विचर कर उषा नदी के तट उस पार, चूसा रस पत्तो-पत्तों से फूलो का दे लोभ अपार । लगे रहे जो अभी डाल से बने आवरण फलो के, अवयव थे शृगार रहे जो वनबाला के झुलो के। आशा देकर गले लगाया रुके न वे फिर रोके से, उन्हे हिलाया बहकाया भी किधर उठाया झोके से। कुम्हलाये, सूसे, ऐठे फिर गिरे अलग हो वृन्तों से, वे निरीह मर्माहत होकर कुसुमाकर के कुन्तो से। नवपल्लव का सृजन ! तुच्छ है किया वात से वध जब क्रूर, कौन फूल सा हंसता देखे ! वे अतीत से भी जब दूर । लिखा हुआ उनकी नस-नस में इस निर्दयता का इतिहास, तू अब 'आह' बनी घूमेगी उनके अवशेपों के पास । बिम्बिसार--(उठकर आप-ही-आप) -सन्ध्या म समीर ऐसा चल रहा है-जैसे दिन भर का तपा हुआ उद्विग्न संसार एक शीतल निश्वास छोड़कर अपना प्राण धारण कर रहा हो। प्रकृति की शान्तिमयी मूर्ति निश्चल होकर भी मधुर झोंके से हिल जाती है। मनुष्य-हृदय भी एक रहस्य है, एक पहेली है। जिस पर क्रोध से भैरवहुंकार करता है, उसी पर स्नेह का अभिषेक करने के लिए प्रस्तुत रहता है । उन्माद ! और क्या ? क्या इस पागल विश्व के शासन से अलग होकर मनुष्य कभी निश्चेष्टता नही ग्रहण कर सकता ? हाय रे मानव ! क्यों इतनी दुरभिलाषायें बिजली की तरह तू अपने हृदय मे आलोकित करता है ? क्या निर्मल- ज्योति तारागण की मधुर किरणो के सदृश सद्वृत्तियो का विकास तुझे नही रुचता ! अजातशत्रु : २७९