पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/३०१

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के स्वर्ग से मैं वंचित कर दी गयी। ईंट-पत्थर के महल रूपी बन्दीगृह में मैं अपने को धन्य समझने लगी थी। दण्डनायक, मेरे शासक ! क्यों न उसी समय शील और विनय के नियम-भंग करने के अपराध में मुझे आपने दण्ड दिया । क्षमा करके, सहन करके, जो आपने इस परिणाम की यन्त्रणा के गर्त में मुझे डाल दिया है, वह मैं भोग चुकी । अब उबारिये। बिम्बसार छलना, दण्ड देना मेरी सामर्थ्य के बाहर था ! अब देखू कि क्षमा करना भी मेरी सामर्थ्य में है कि नही ! वासवी-(प्रवेश करके)-आर्यपुत्र | अब मैंने इसको दण्ड दे दिया है, यह मातृत्व-पद से च्युत की गयी है, अब इसको आपके पौत्र की धात्री का पद मिला है। एक राजमाता को इतना बड़ा दण्ड कम नही है। अब आपको क्षमा करना ही होगा। बिम्वसार-वासवी ! तुम मानवी हो कि देवी ? वासवी बता दूं। मैं मगध के सम्राट् की राजमहिषी हूँ। और, यह छलना मगध के राजपौत्र की धाई है, और यह कुणीक मेरा वच्चा इस मगध का युवराज है और आपको भी पार-मै अन्छी तरह अपने को जानता हूँ वासवी ! वासवी -क्या? विम्बसार- कि मैं मनुष्य हूँ और इन मायाविनी स्त्रियों के हाथ का खिलौना हूं। वासवी -तब तो महाराज, मै जैमा कहती हूँ वैसा ही कीजिये, नहीं तो आपको लेकर मै नही खेलूंगी। बिम्बसार--तो तुम्हारी विजय हुई वासवी ! क्यों अजात ! पुत्र होने पर पिता के स्नेह का गौरव तुम्हे विदित हुआ--कैसी उलटी बात हुई । [कुणीक लज्जित होकर सिर झुका लेता है] पद्मावती--(प्रवेश करके)-पिताजी, मुझे बहुत दिनो से आपने कुछ नही दिया है, पौत्र होने के उपलक्ष्य मे तो मुझे कुछ अभी दीजिये, नही तो मै उपद्रव मचाकर इस कुटी को खोद डालूंगी। बिम्बसार-बेटी पद्मा ! अहा तू भी आ गयी । पद्मावती-हां पिताजी ! बहू भी आ गयी है । क्या मै यही ले आऊँ ? वासवी-चल पगली ! मेरी मोमे-मी बहू इस तरह क्या जहां-तहाँ जायगी- जिसे देखना हो, वही चले ! बिम्बसार-तुम सबने तो आकर मुझ आश्चर्य मे डाल दिया। प्रसन्नता से मेरा जी घबरा उठा है। अजातशत्रु : २८१