पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/३१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अर्जुन -(छोड़ कर) हैं, मित्र चित्रसेन ! तुम कहाँ ? [दोनों गले से गले मिलते हैं। सब आश्चर्य से देखते हैं] अर्जुन -मित्र ! क्षमा करना, युद्ध-विप्लव में सहमा आपको न पहिचान सका। चित्रसेन-मित्र ! कुछ नही, “ह केवल संयोग था। कहो, तुम कैसे यहाँ आये ? युद्ध क्यों हुआ? अर्जुन महाराज की आज्ञा हुई कि दुर्योधनादिकों को गन्धर्व लोग पकड़े लिए जाते हैं, अतएव उन्हें शीघ्र जाकर छुडामो। चित्रसेन - (आश्चर्य से) महाराज ने आज्ञा दी ! (सोचकर) अहा ! यह बात मिवा धर्मगज के किपके हृदय में आ सकती है ! देखो लाक्षागृह मे जारन चाह्यो, छल सों सब करि हरण, दियो बनवाम अकेल्यो। कानन हूँ मे आयो छल मे जो मारन को। त्यहि अरिह पै दया कर, अम मनिधारन गे॥ अच्छा चलिये । (विद्याधरों से)-चलो, इन्हें इसी प्रकार से महाराज के सन्मुख रे चलो। (अर्जुन से) आओ मित्र" धनंजय ! हम लोग भी चले। [दोनों आगे-आगे हाथ में हाथ मिला कर जाते हैं। पीछे-पीछे विद्याधर लोग दुर्योधनादि को बाँध कर ले चलते हैं] [पट परिवर्तन] जुआ खेल्यो पंचम दृश्य [महाराज युधिष्ठिर, भीम, नकुल, सहदेवादि द्रौपदी के सहित बैठे हुए हैं] युधिष्ठिर-प्रिये कृष्णा ! कुमुदिनीनायक के मुप्रकाश में कानन कैमा प्रतीय- मान हो रहा है युधिष्ठिर -तिमिर गगन माही, चन्द्र आभा प्रकास । द्रौपदी-जिमि सुमति लहते चित्त में धर्म भामै ।। युधिष्ठिर - उदय रजनी " जो सदा तेज धार । द्रौपदो-जिमि मुजन कुसंगौ में परे पुण्य धार ।। युधिष्ठिर कुमुदिनि पिकमानी इन्दु की मूर्ति देखे । द्रौपदो -शुभमति सुधरैहै ज्यों विवेक सुपेखे ॥ युधिष्ठिर- उडुगन जुरि आये चन्द्र गो चारु घेरे । द्रौपदी- जिमि शुभ फल आवै मज्जनों पं घनेरे ॥६ ३३. विजय ३५ तौ . युधिष्ठिर -धन्य प्रिये ! धन्य ! मजन : १५