वेद-दामिनी ! मैंने तेरी दुर्बलता और उत्तंक का चरित्र-बल अपनी आँखो से देखा है। तुझे लज्जा नहीं आती कि मैने उस त्रुटि की पूर्ति के लिये तुझे जो अवसर दिया, वह तूने खो दिया । [दामिनी सिर झुका लेती है, दोनों का प्रस्थान] दृश्या न्त र तृतीय दृश्य [इन्द्रप्रस्थ में जनमेजय की राज्यसभा : जनमेजय, तुरकावषेय और सभासदगण] जनमेजय-भगवान ! फिर भी कोई सीमा होनी चाहिये । राजपद का इतना अपमान । तुर कावषेय-राजन् वसुन्धरा के समान चक्रवर्ती का हृदय भी उदार और सहन-शील होना चाहिए। उसे व्यक्तिगत मानापमान पर ध्यान न देना चाहिए । और ब्राह्मणो को तो सदा सन्तुष्ट रखना चाहिये, क्योकि यही सन्तुष्ट रहने पर राष्ट्र का हितचिन्तन करते है । इसीलिये इनका इतना सम्मान है । जनमेजय-किन्तु आर्य, मैंने कोई ऐसी बात नही की जिससे पुरोधा अप्रसन्न हो। और, उन्हे तो राष्ट्र के उत्कर्ष से प्रमन्न होना चाहिये था, न कि उलटे वे मुझे मना करते कि तुम अभी तक्षशिला पर चढाई न करो। तुर कावषेय उन्हाने इमी मे तुम्हारा कुछ हित विचारा होगा। सम्भव है, उनकी समझ की भूल या तुम्ही इमको न समझ सके हो। जनमेजय -आर्य अभी मै उस प्रदेश को विजय किये चला आ रहा हूँ। आपको नही मालूम, वे वन्य जातियां किस तरह सभ्य और सुग्वी प्रजा को तग किया करती थी। कन्याओ का अपहरण किया जाता था, धनी लटे जाते थे, व्यवसाय का मार्ग बन्द हो गया था। सीमाप्रान्त की दस्तु जातियो की उच्छृ खलता बढ़ती जा रही थी। भला यदि मैं उनको दण्ड न देता, तो और क्या उपाय था ? तुर कावषेय-यदि ऐसा ही था तो तुम्हारी युद्धयात्रा आवश्यक थी । यही राजधर्म था। अस्तु, तुम्हारा यह ऐन्द्रमहाभिषेक तो हमने करा दिया, और वह सम्पन्न भी हुआ, किन्तु तुम्हे अपने पुरोहित काश्यप से क्षमा मांगनी चाहिये, और इसकी सारी दक्षिणा उन्ही को दी जानी चाहिये । मैं इसी प्रसन्न हूंगा। जनमेजय-भगवान की जैसी आज्ञा। कोई जाकर आचार्य को बुला लावे, और दक्षिणा भी प्रस्तुत हो। [प्रतिहारी जाता है] . २९६ : प्रसाद वाङ्मय
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