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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/३१७

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तुर कावषेय राजन् ! मामिकता से प्रजा की पुकार सुनना । युद्धयात्राएँ अब तुम्हे विजय देंगी। इस अभिषेक का यही फल है किन्तु राजन विजयों का व्यवसाय न चलाना, नही तो उसमे घाटा भी उठाना पडता है। सृष्टि की उन्नति के लिए ही राष्ट्र है। बल का प्रयोग वही करना चाहिये जहां उन्नति में बाधा हो। केवल मद से उस बल का दुरुपयोग न होना चाहिये। तुम्हारी राजपरिषद् ने भारत के साम्राज्य का, तुम्हारी किशोरावस्था मे, बड़े नियमित रूप से सुशासन किया है । यौवन और प्रभुत्व के दर्प मे आकर काम न बिगाड बैठना । प्रतिहारी-(प्रवेश करके) महाराज की जय हो । आचार्य आ रहे हैं। [काश्यप पुरोहित का बकते-शकते प्रवेश] काश्यप-यह क्या ! इसका लकडदादा कवप एक दासी का पुत्र था, इसीलिए ऋषियों ने भोजन के ममय उसे अपनी पंक्ति से निकाल दिया था। उसी का वंशधर तुर-फुर भला यह क्या जाने कि अभिषेक किमे वहते है । दासी-पुत्र वंशधर के किये अभिषेक मे तुम मम्राट् हो ! ए | देखोगे इसका परिणाम, भोगोगे इसका फल मैं कोरयो का प्राचीन पुरोहित, वशपरम्पग से मेग अधिकार, राजकुल का देव, उसी का इतना अपमान | तुर कावषेय- ऋषिवर्ष, क्षमा हो। राष्ट्र के कामो को रोक देना भी तो उचित नही था। भला सोचिये कि वहाँ तो ब्राह्मण-कन्याये दस्युओ से अपहृत हो रही हो, और यहाँ आप इन्हे तक्षशिला-विजग से रोके ! क्या वे आपके ही स्वजन नही क्या वे इस राज्य मे नही रहते ? क्या उनकी रक्षा का भार इन्द्रप्रस्थ के . ? सम्राट् पर नही है? काश्यप-मै कौरवो का कर्मकाण्ड कराते-कराते बुड्ढा हो गया, किन्तु तुम्हारे समान लफगा इस गज-सभा मे आज तक न देखा। क्या राजतन्त्र जो चाहे, वही करता जाय, और अध्यात्म के गुरु ब्राह्मण उसी की हॉ-मे-हाँ मिलाते जाय ! यदि ऐसा ही था, तो ब्राह्मणो को दण्ड देने का अधिकार भी गजा को क्यों न मिला? नियन्त्रित गट्र के नियमन का अधिकार ब्राह्मणो को है। इन बातो को तुम क्या जानो ' वह तो जिसकी पैतृक सम्पत्ति हो, वही जानेगा । तुम क्या जानो। तुर कावपय द्विजवर्य ! जब राजा अपनी प्रजा का, अपने राष्ट्र का वैभव बढ़ा रहा हो, तब उसका आदर करना भी उसकी प्रजा का धर्म है। काश्यप--और अपने अग्नि-सेवक, पुरोहित, पाप के पञ्चमांश भोक्ता, गुरुसमान ब्राह्मण की अवज्ञा का प्रायश्चित्त कौन करेगा ? राष्ट्र का भला हुआ, यह एक स्वतन्त्र धर्म है, और ब्राह्मण की अवज्ञा-एक भिन्न पाप है। दोनों का परिणाम भिन्न है। हम लोग कर्मवादी है। फल दोनो का ही मिलेगा ! अरे तुम क्या पढ़कर . जनमेजय का नाग यज्ञ: २९७