पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/३१८

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आये हो। यहाँ इसी में यह दाढ़ी सफेद हुई है --यह दाढ़ी। (दाढ़ी पर हाये फेरता है) जनमेजय-भगवन्, यह पौरव जनमेजय प्रणाम करता है। चाहे मुझसे और जो भूल हुई हो, किन्तु दक्षिणा मैंने किसी को नहीं दी। वह आप ही के लिये रखी है। [अनुचरगण दक्षिणा की थाली लाते हैं] काश्यप-(थाली लेकर) आशीर्वाद ! कल्याण हो ! क्यों न हो ! हैं तो आप पौरवकुल के ! फिर क्यों न ऐसी महत्ता रहे ! तुर कावर्षय-हिंसकर) तो क्यों महात्मन्, मुझे कुछ भी न मिलेगा। मैंने आपके यजमान के सब कृत्य कराये, और दक्षिणा- काश्यप-तुम लोगे ? अच्छे आये ! अरे अभी जो अशुद्ध कृत्य तुमने कराया होगा, उसका प्रायश्चित्त कराना पड़ेगा उसमे जो व्यय होगा वह कौन देगा बोलो, ऐं। तुर कावषय--जो फिर मैं यो ही चला जाऊँ ? काश्यप- तो क्या यही बैठे रहोगे ? अरे अभी सम्राट् युवक है, तुम लोगों की बातों मे आ जाते है । किन्तु फिर"" तुर कावर्षय-तो फिर मै जाता हूँ। आप दोनों, यजमान और पुरोहित, मिल बरतें। काश्यप-राजाधिराज, तुर कावषेय जाना चाहते है, इन्हें प्रणाम करो। [सब प्रणाम करते हैं। तुर हँसते हुए जाते हैं। काश्यप बैठता है। वपुष्टमा का प्रवेश] वपुष्टमा-आर्य काश्यप को मैं प्रणाम करती हूँ। (सिंहासन पर बैठती है) काश्यप-कल्याण हो सौभाग्य बढ़े, वीर प्रसविनी हो। जनमेजय-देवि, तुम्हारे आ जाने से यह राजसभा द्विगुणित शोभायुक्त हुई। आर्य तुर ने दक्षिणा नही ली, वे यों ही चले गये। वपुष्टमा-क्यों आर्यपुत्र आपने ऐसा क्यों होने दिया ? मन्त्री-साम्राज्ञी, वे तपस्वी है, महात्मा है, त्यागी हैं। उन्होंने कहा-हम राष्ट्र की शीतल छाया मे रहते है, इसलिए हमारा कर्तव्य था कि प्रजाहितेषी विजयी राजा का ऐन्द्रमहाभिषेक करे और दक्षिणा के अधिकारी तो आपके पुरोहित काश्यप हैं ही। काश्यप-यह बात तो उसने पद्धति के अनुसार ही की है । वपुष्टमा-(हंसकर) किन्तु आर्य काश्यप, आपको तो उन्हें सन्तुष्ट करना चाहिये था । आप ही कुछ दे देते। २९८: प्रसाद वाङ्मय