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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/३१९

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काश्यप-साम्राज्ञी, अभी आपसे तो कुछ दक्षिणा मिली नहीं। वह मिलने पर फिर तुर कावषेय को देने का विचार करूंगा ! वपुष्टमा-तब भी विचार ! काश्यप--और क्या ! हम लोग बिना विचार किये कोई काम करते हैं ? यदि पद्धति वैसी आज्ञा न दे, यदि वह विहित न हो तो फिर पाप-भागी कौन होगा? दूना प्रायश्चित कौन करेगा? मन्त्री-(हंसते हुए) यथार्थ है । काश्यप-हां, सूत्रों की यथावत पद्धति के अनुसार ! बस ! वपुष्टमा-आर्य पुत्र, अन्त.पुर की सहेलियां बड़ा आग्रह करती हैं। वे कहती हैं, आज तो बड़े आनन्द का दिवस है, हम लोग राजाधिराज को अपना कौशल दिखा कर पुरस्कार लेंगी। जनमेजय-किन्तु देवि, यह परिषद्गृह है । काश्यप-नही सम्राट् यह भी उसी का अंग है। अभिषेक के बाद नाच-रंग होना पद्धति के अनुसार है, विधि-विहित है । जनमेजय-देवि, अब रंग-मन्दिर में चलकर नृत्य देखूगा। यहाँ बैठे विलम्ब भी हुआ। दौवारिक-(प्रवेश करके) जय हो देव ! एक स्नातक ब्रह्मचारी राज-दर्शन की इच्छा से आये हैं। जनमेजय-लिवा लाओ। [दौवारिक जाता है और उत्तंक को लेकर आता है] उत्तंक-राजाधिराज की जय हो ! जनमेजय-ब्रह्मचारिन्, नमस्कार करता हूं। कहिये आप किस कार्य के लिये पधारे है ? उत्तंक-रग्जाधिराज, मैं आर्य वेद का अन्तेवासी हूँ। मेरी शिक्षा समाप्त हो गयी है, किन्तु अभी तक गुरुदक्षिणा नही दे सका हूँ। इसलिये आपके पास प्रार्थी होकर आया हूँ। काश्यप-अरे कुछ कहो भी, किसलिये आये हो ? जैसा गुरु है, वैसे ही तुम भी हो । न बोलने की पद्धति, न विधिविहित शिष्टाचार । क्या वेद ने तुम्हें यही पढ़ाया है ? उत्तंक -आप वृद्ध हैं, पूजनीय हैं, क्या रे उपाध्याय को कटु वाक्य कहकर मेरी गुरुभक्ति की परीक्षा लेना चाहते है ? या मुझे अपना शिष्टाचार सिखाना चाहते हैं ? जनमेजय का नाग यश: २९९