पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/३२०

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- जनमेजय-ब्रह्मचारीजी, क्षमा कीजिये ! आप आर्य वेद के गुरुकुल से आये हैं ? अहा ! मैंने भी वहीं शिक्षा पायी है । आर्य सकुशल तो हैं ?

उत्तंक-सम्राट्, सव कुशल है ।

जनमेजय-गुरुकुल अच्छी तरह चल रहा है ? कोई कमी तो नहीं है ? अब तो गुरुवर बहुत वृद्ध हो गये होगे ! महा-वटवृक्ष वैसा ही हरा-भरा है ?

काश्यप-अभी तो कुछ ही वर्ष हुये, अग्निहोत्र के लिए उन्होंने फिर पाणिग्रहण किया है।

जनमेजय--(ब्रह्मचारी से) क्या आर्य काश्यप सच कहते हैं ?

उत्तंक -सच है राजाधिराज ! उन्ही अपनी गुरुपत्नी के लिए मुझे महादेवी के कानों के मणिकुण्डल चाहिए । मुझ से यही गुरुदक्षिणा मांगी गयी है।

जनमेजय-(कुछ देर चुप रह कर) मेरा तो कुण्डलों पर कोई अधिकार नहीं है, क्योंकि मैं यह विजयोपहार महादेवी को अर्पण कर चुका हूँ।

काश्यप-तपोवन के गुरुकुल में ये मणिकुण्टल गहन कर तुम्हारी गुरुपत्नी क्या करेंगी? ? उत्तंक -और यह भी कोई सिस्टाचार कि पुरोहित राजधर्म में बाधा डालें- दानशील राजा के मन में शंका उत्पन्न करें ? महादेवी, मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि मणिकुण्डल दान कर मुझे गरु-ऋण से मुक्त कीजिये ।

वपुष्टमा-(कुण्डल उतार कर देती है) लीजिये ब्रह्मचारीजी। किन्तु इन्हें बड़ी सावधानी से ले जाइयेगा।

उत्तंक-अचल सौभाग्य हो ! राज्यश्री अविचल रहे ! जनमेजय-ये तक्षक के अमूल्य मणिकुण्डल है। वह इनकी ताक में है । इन्हे सुरक्षित रखियेगा।

उत्तंक-जो आज्ञा। (जाता है)

काश्यप -अरे ऐसे अमूल्य रत्न भी इस तरह अज्ञात ब्रह्मचारी को दान करने चाहिये ? राजकोष मे फिर क्या रह जायगा जनमेजय-किन्तुिन्तुतु वह ब्रह्मचारी बड़ा सरल दिखाई देता है । जनमेजय-किन्तु वह ब्रह्मचारी बड़ा सरल दिखाई देता है

। काश्यप-ऐसे बहुतेरे ठग आते हैं।

वपुप्टमा-आर्य, ऐसा न कहिये ।

            [मरमा का प्रवेश]

सरमा-दुहाई है ! दुहाई है ! न्याय कीजिए, सम्राट, दुहाई है ! जनमेजय -क्या है ? किस बात का न्याय चाहती हो ? सरमा-मेरे पुत्र को आपके भाइयों ने अकारण पीटा है। वह कुतूहल से पज्ञशाला में चला गया था। वे लोग कहते थे कि उसने घी का पात्र जूठा कर दिया।

३००:प्रसाद वाङ्मय