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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/३२१

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! ? काश्यप-अवश्य ही वह चोरी से घी खाने घुसा होगा। वपुष्टमा-आर्यपुत्र ! न्याय कीजिये ! नारी का अश्रुजल अपनी एक-एक बूंद में बहिया लिये रहता है। जनमेजय-तुम्हारा नाम क्या है । तुम क्यों यहाँ आयी हो ? सरमा-मैं यादवी हूँ। मैंने अपनी इच्छा से नाग-परिणय किया था, पर उनकी कुटिलता न सह सकी। कारण यह कि वे दिनरात आर्यों से अपना प्रतिशोध लेने की चिन्ता मे रहते थे। यह मुझमे सहन न हो गका, इसलिये मैं उनका राज्य छोड़ कर चली आयी। वपुष्टमा-छि: । आर्य-ललना होकर नाग जाति के पुरुष से विवाह किया ! तभी तो यह लाञ्छना भोगनी पड़ती है । सरमा-साम्राज्ञी ! मैं तो एक मनुष्य-जाति देखती हूँ-न दस्यु और न आर्य ! न्याय की सर्वत्र पूजा चाहती हूँ -चाहे वह गज मन्दिर में हो, या दरिद्र-कुटीर मे । सम्राट्, न्याय कीजिये। जनमेजय-दस्यु महिला लिए कोई आर्य न्यायाधिकरण मे नही बुलाया जायगा । तुमने व्यर्थ इतना प्रयास किया । सरमा सम्राट्, मनुष्यता की मर्यादा भी क्या सब के लिए भिन्न-भिन्न है क्या आर्यों के लिए अपराध भी धर्म हो जायगा ? जनमेजय-चुप रहो ! पतिता स्त्रियों को श्रेष्ठ और पवित्र आर्यो पर अभियोग लगाने का कोई अधिकार नही है । सरमा-किन्तु पतिता पर अतिचार करने का आर्यों को अधिकार है ? राजाधिराज, अधिकार का मद न पान कीजिये । न्याय कीजिये। जनमेजय-असभ्यों में मनुष्यता कहां ! उनके साथ तो वैसा ही व्यवहार होना चाहिये । जाओ सरमा ! तुमको लज्जित होना चाहिये । सरमा- इतनी घृणा | ऐश्वर्य का इतना घमण्ड ! प्रभुत्व और अधिकार का इतना अपव्यय ! मनुप्यता इसे नही सहन करेगी। सम्राट् सावधान ! काश्यप--जा, जा, चली जा । बक-बक करती है। सरमा-काश्यप, मै जाती हूँ। किन्तु स्मरण रखना, दुखिता, अनाथा रमणी का अपमान, पीड़िता की मर्मव्यथा, कृत्या होकर राजकुल पर अपनी कराल छाया डालेगी। उस समय तुम्हारे-जैसे लोलुप पुरोहित उससे राजकुल को रक्षा न कर । (वेग से प्रस्थान) दृश्या न्त र जनमेजय का नाग यज्ञ : ३०१