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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/३२२

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चतुर्थ दृश्य [पथ में सरमा और माणवक] माणवक-इतना अपमान ! माँ, यह असह्य है। सरमा-हां बेटा ! धिक्कारो, इस अभागिनी को ! मर्मवेधी शब्दों से और भी आहत करो ! तुम्हारे अपमान का कारण मैं ही हूँ। माणवक -- माँ ! इन दम्भियों में कौन-सी विशेष मनुष्यता है जो तुम अपना राज्य छोड़कर इनसे तिरस्कृत होने के लिए चली आयी हो ? अपना अपना ही है। दारिद्रय की विकट ताड़ना से एक टुकड़े के लिये दूसरों की ठोकर सहना ! ओह- सरमा-बस करो बेटा ! माणवक-नही, मां बड़ी भूख लग रही है । पेट की ज्वाला ही वह बड़वाग्नि है जो कभी नहीं बुझती। उसे सब लोग नही अनुभव कर सकते। जो उत्तम पदार्थों की थाली पैर मे ठुकरा देते है, जिन्हें अरुचि की डकार सदा आती रहती है, वे इसे क्या जानेगे। मां इमी के लिए ऐसे कर्म हो जाते हैं जिन्हें लोग अपराध कहते हैं । सरमा-बेटा, तुम इम अभागिनी की और भी भर्त्सना करोगे? क्षमा करो लाल, मैं इन्हें अपना सम्बन्धी ममझ कर इनका आश्रय लेने चली आयी थी। तुम मेरी अग्नि परीक्षा न करो। जिनकी रसना की तृप्ति के लिए अनेक प्रकार के भोजनों की भरमार होती है, वे पेट की ज्वाला नहीं समझते। मैंने न्याय की प्रार्थना की, तो उन्होंने एक अपमान और जोड़ दिया कि मैने नाग-परिणय किया था। यह भी मुझ पर एक अपराध लगा ! हे भगवान मेरे अभिमान का यह फल ! माणवक-फिर तुमने मुझे प्रतिशोध लेने से क्यों रोक दिया ? सरमा हत्या ! तू सरमा का पुत्र होकर गुप्त रूप से हत्या करना चाहता था, यह कलंक मैं नहीं सह सकती थी तू उनसे लड़कर वही मर जाता या उन्हें मार डालता, यह मुझे स्वीकार था। परन्तु उसके लिए तू अभी बिलकुल बच्चा है । माणवक-दुर्बलों के पास और उपाय ही क्या है ? क्या तब मुझे शान्ति मिलेगी, जब तुम हस्तिनापुर के राजमन्दिर के वातायनों की ओर दीनता से ताकती रहोगी? सरमा -नही बेटा। मैं इस अपमान का बदला लूंगी, किन्तु सहायता के लिये लौटकर नागकुल में न जाऊँगी। माणवक-तब पिर प्रतिशोध कैसे सम्भव है ? मां, मेरे हृदय में दारुण प्रतिहिंसा की ज्वाला धधक रही है। घमण्डियों के वे वक्र विलोचन बरछी की तरह लग रहे हैं । मां, मुझे अत्याचार का प्रतिशोध लेन दो। मैं पिता के पास जाऊँगा। मैं मनसा के हाथों का विषाक्त अस्त्र बनूं, उसकी भीषण कामना का पुरोहित बनूं । ३०२: प्रसाद वाङ्मय