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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/३२३

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क्रूरता का तांडव किये बिना में न जी सकूँगा। मैं आत्मघात कर लूंगा। (रोने लगता है) सरमा-मैं जानती हूँ, मैं अनुभव कर रही हूं। उस अपमान के विष का चूंट मेरे गले में अभी तक तीव्र वेदना उत्पन्न करता हुआ धीरे-धीरे उलट रहा है । पर माणवक, मेरे प्यारे बच्चे ! पहले तो तूने मातृ-स्नेह के वश होकर अपने पिता के वैभव का तिरस्कार किया। पर अब, क्या मनसा से सहायता मांग कर मुझे उसके सामने फिर लज्जित करना चाहता है ? यादवी प्राण के लिये नही डरती। (छुरी फेंककर) ले, पहले मेरा अन्त कर ले, फिर तू जहाँ चाहे, चला जा। (रोकर) हाय ! वत्स तुझे नहीं मालूम कि तेरे ही अभिमान पर मैंने राज-वैभव ठुकरा दिया था बेटा! माणवक-मां, मत रोओ, क्षमा करो, मेरी भूल थी। मै पुत्र हूँ। अपने अपमान के प्रतिशोध के लिए तुम्हारा हृदय दु.खी नही करना चाहता (पैरों पर गिरते हुए) मां, मैं जाता हूँ। भाग्य मे होगा, तो फिर तुम्हारे दर्शन करूंगा। (उठकर डबडबाई आँखों से सरमा को देखता माणवक जाता है) सरमा-ठहर जा, माणवक ठहर जा। मेरी बात सुन ले । रूठ मत, मैं सब करूंगी। जो तू कहेगा, वही करूंगी। सुन ले ! नही आया ! चला गया ! हाय रे जननी का हृदय ! मैं सब ओर से गयी। इस अन्धकारपूर्ण शून्य हृदय में सैकड़ों बिजलियों से भी प्रकाश न होगा। माणवक-माणवक ! (उसके पीछे जाती है) दृश्या न्त र पंचम दृश्य [कानन में क्षुब्ध तक्षक] तक्षक-मैं अपने शत्रुओ को सुखासन पर बैठे, साम्राज्य का खेल खेलते, देख रहा हूँ। और स्वयं दस्युओं के समान अपनी ही धरणी पर पैर रखते हुए भी काप रहा हूँ। प्रलय की ज्वाला इस छाती में धधक उठती है ! प्रतिहिंसे ! बलि चाहती है, तो, ले, मै दूंगा ! छल, प्रवञ्चना, कपट, अत्याचार, सभी तेरे सहायक होगे, हाहाकार, क्रन्दन और पीड़ा तेरी सहेलियाँ बनेगी। रक्तरञ्जित हाथो से तेरा अभिषेक होगा। शव-गन्ध पूरित धूम से भर शून्य गगन तेरी धूपदानी बनेगा। ठहरो देवि ठहरो (खड्ग निकालता है ) [सशंक वासुकि का प्रवेश] वासुकि क्यों नागनाथ ! क्या हो रहा है ? किस पर क्रोध ? जनमेजय का नाग पश: ३०३