तक्षक - प्रिय वासुकि, तुम आ गये ? कहो वह काश्यप ब्राह्मण आवेगा कि नहीं? वासुकि-प्रभो ! वह तो गहरी दक्षिणा पाकर फिर राजकुल से सन्तुष्ट हो गया है। किन्तु उसे एक बात का बडा खेद है। वह रानी के मणिकुण्डल दूसरे ब्राह्मण को मिलना सहन नहीं कर सकता। इसी से आशा है कि वह फिर आपसे मिलेगा। सरमा भी अपनी करनी का फल पा रही है। वह अत्यन्त अपमानित की गयी है, सभव है वह फिर नाग-कुल मे लौट आवे । तक्षक - मणिकुण्डल ! कौन, वे ही, जो कभी हम नागो की अमूल्य सम्पत्ति थे। हाय ! वामुकि, वे फिर कहाँ मिलेगे। किन्तु वे मिल जाते तो काश्यप को देकर उसे अपनी ओर मिला तता। राजकुल वा पूरा समाचार काश्यप से ही मिल सकता है। काश्यप -(प्रवेश करके) नागनाय पी जय हो । तक्षक-प्रणाम करता हूँ ब्राह्मण देवता । कुशल तो है ? काश्यप-चार्य, क्षत्रियो को घमण्ड हो गया है। उनके सविनय प्रणाम मे भी एक तीखा तिरस्कार भरा रहता है। ब्राह्मणो पा सम्मान वे महन नही कर सकते। राजमद से वे इतने मत्त है कि अध्यात्म गुरु की अवहेलना क्या, कभी-कभी परिहास तक कर बैठते हे - उनके कोध को हमी म उडा देते है । यह बात इस विशुद्ध ऋषि- कुल-सम्भूत शरीर को महन नही है। (ठहर कर) नागराज, अभी तक क्षत्रिय स्पष्ट रूप से ब्राह्मणो के नेतृत्व पिरोध नही कर मके है। अभी वे प्राचीन संस्कार के वशीभूत है। तक्षक-तो फिर क्या, आज्ञा है ? काश्यप-घबराओ मत । अभी ब्राह्मणो मे वह बल है, तप का वह तेज है कि वे नाग-जाति को क्षत्रिय ना ले । तुम लोगो को भी चाहिये कि जहाँ तक हो सके, आर्य-जाति की इन्द्रियपरायणता के सहायक बनो। उनमे अपने रक्त का मिश्रण करो। ममय आने पर तुम्हारे ही वशधर इम भारत के अधिकारी होगे। पर इसके लिए उद्योग करते रहो। तक्षक-प्रभो, मणि कुण्टल कौन ब्राह्मण लाया है काश्यप-(नेपथ्य की ओर देखकर) लो, वह आ रहा है। हम लोग छिप जाते हैं । (वासुकि का हाथ पकड़कर जाता है) [उत्तंक का प्रवेश] तक्षक-ब्रह्मचारिन, नमस्कार करता हूँ उत्तंक-कल्याण हो ! मैं थक गया हूँ। यदि यहां विश्राम करूं तो, आप असन्तुष्ट तो न होगे? क्या आप इस कानन के स्वामी है ? ? ३०४ प्रसाद वाङ्मय
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