पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/३४२

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तक्षक-सरमा ! क्या तुम भी ऐसा कहती हो? अपनी ही अवस्था पर विचार कर देखो। जो राजतन्त्र न्याय का ऐसा उदाहरण दिखा सकता है, क्या वह बदलने योग्य नहीं है? सरमा-फिर भी एक दस्यु-दल को उसका स्थानापन्न बनाना बुद्धिमत्ता नहीं है । धर्म का ढोंग करके, एक निर्दोष आर्य-सम्राट् को अपने चंगुल में फंसा कर, उसके पतित होने की व्यवस्था देना, जिससे वह राज्यच्युत कर दिया जाय, क्या उचित है ? सो भी यही तक नहीं, उसके कुल-भर को आर्य-पद से इस प्रकार वंचित कर देने की कुमंत्रणा कहाँ तक अच्छी होगी। काश्यप -स्वेच्छाचारिणी ! जो अनार्यो की दासी हो चुकी है, जो अपनी मर्यादा बिलकुल खो चुकी है, क्या वह भी ब्राह्मणों के कर्तव्य की आलोचना करेगी ? सरमा-तुमने राजसभा में मुझे अपमानित किया था। आज फिर वही बात । ब्राह्मण ! सहन की भी सीमा होती है। उस आत्मसम्मान की प्रवृत्ति को तुम्हारे बनाये हुए द्विज-महत्ता के बन्धन नहीं रोक सकेंगे। मैं यादवी हूँ, अपमान का बदला षड्यन्त्र करके नही लूंगी। यदि मेरे पुत्र की बाहुओं में बल होगा, तो वह स्वयं प्रतिशोध ले लेगा। मैं अब जाती हूँ, परन्तु मेरी बात स्मरण रखना। (वेग से जाती है) काश्यप-नागराज, इसे अभी मार डालो ! नहीं तो यह सारा भण्डा फोड़ देगी ! [तक्षक दौड़कर उसे पकड़ लाता है, दूसरी ओर से मनसा का प्रवेश] मनसा -नागराज; क्या करते हो ! स्त्रियों पर यह अत्याचार ! छोड़ो इसे ! पहले अपनी रक्षा करो ! [तक्षक सरमा को छोड़ देता है] तक्षक-क्या ! अपनी रक्षा ! मनसा-हाँ, हाँ, अपनी रक्षा ! जनमेजय की सेना फिर तक्षशिला में पहुंच गयी है। भाई वासुकि नाग-सेना एकत्र करके यथाशक्ति उन्हें रोक रहे हैं। आर्यों का यह आक्रमण वड़ा भयानक है। वे तुम लोगों से बढ़कर बर्बरता दिखला रहे हैं । जो लोग बन्दी होते हैं, वे अग्निकुण्ड में जला दिये जाते हैं। गांव-के-गांव दग्ध हो रहे हैं। नागजाति बिना रक्षक की भेड़ों के समान भाग रही है। आर्यों की भीषण प्रतिहिंमा जाग उठी है। जनमेजय कहता है कि पिता को जलाकर मारने का प्रतिफल इन नागों को उमी प्रकार जला कर दूंगा। हाहाकार मचा हुआ है। सरमा-क्यों मनसा, अब मैं जाऊं या तक्षक के हाथों प्राण दूं? यादवी प्राणों की भिक्षा नहीं चाहती। 1 - ३२२ : प्रमाद वाङमय