पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/३४३

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मनसा-सरमा ! यदि हो सके, तो इस विपत्ति के समय नागों की कुछ सहायता करो। सरमा-नही मनसा ! यह आग तुम्ही ने भडकायी है । इसे बुझाने का साधन मेरे पास नहीं है। काश्यप-और मैं, मैं क्या करूं ! हाय रे ! मैं क्या-मैं क्या-1 मनसा-तुम ! तुम घृणित पशु हो, चुप रहो ! काश्यप-सरमादेवी ! मेरा अपराध-हाय रे क्षमा-1 सरमा-मनसा ! मैं प्रतिज्ञा करती हूँ कि मुझसे नागो का कुछ भी अनिष्ट नहीं होगा। (जाती है) तक्षक-इधर हम लोग भी तो आर्य-सीमा के भीतर ही हैं ! क्या किया जाय, कैसे पहुंचकर वासुकि की सहायता करूं ! मनसा-चलो ! मैं जानती हूँ, एक पथ है, जो तुम्हे सुरक्षित स्थान पर पहुंचा 1 काश्यप-मैं भी चलूंगा ! यहाँ नही -पर हाय रे ! यहां मेरा बड़ा धन है ! सावधान नागराज, ऐसे कृतघ्न का विश्वास न कीजिये। [तक्षक और मनसा दोनों जाते हैं] काश्यप-तब तो चलो भाइयो, हम भी चले । सब ब्राह्मण-तुमने व्यर्थ हम लोगो पर भी एक प्रायश्चित्त चढाया । काश्यप-क्या मैंने तुम्हे बुलाया था ? पहला ब्राह्मण-काश्यप, यदि हम पहले से जानते कि तुम इतने झूठे हो, तो तुम से बात न करते ! दूसरा ब्राह्मण-तुम इतने नीच हो, यह हम पहले नही जानते थे। तीसरा ब्राह्मण-तुम इतने घृणित हो- काश्यप-अच्छा बाबा ! हम सब कुछ है, तुम लोग कुछ नही हो। यदि दक्षिणा मिलती, तब तो चन्दन-चचित कलेवर लेकर सब लोग मलय-मन्थर गति से घर जाते और मेरी ही बड़ाई करते ! किन्तु अब तो व्यवस्था ही उलट गयी। सब ब्राह्मण-तुमने सबको राजनिन्दा सुनने के पाप का भागी बनाया। काश्यप-और फिर भी कुछ हाथ न आया ! चलो ! [सब जाते हैं] [सरमा गाती हुई आती है] बरस पड़े अश्रु-जल, हमारा मान प्रवासी हृदय हुआ। भरी धमनियां सरिताओं-सी रोष-इन्द्रधनु उदय हुआ। जनमेजय का नाग यज्ञ : ३२३