पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/३४९

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जनमेजय --यही कि भगवान् बादरायण के रहते हुए ऐसा भीषण काण्ड क्यों कर हुआ ! इस गृहयुद्ध में पूज्यपाद देवव्रत के सदश महानुभाव क्यों सम्मिलित हुए ? व्यास-आयुष्मन्, तुम्हारे पितामहों ने मुझसे पूछकर कोई काम नहीं किया था, और न बिना पूछे मैं उनसे कुछ कहने ही गया था, क्योंकि वह नियति थी। दम्भ और अहंकार से पूर्ण मनुष्य अदृष्ट शक्ति के क्रीड़ा-कन्दुक हैं। अन्ध-नियति कर्तृत्व-मद से मत्त मनुष्यों की कर्म-शक्ति को अनुचरी बनाकर अपना कार्य कराती है, और ऐसी ही क्रान्ति के ममय विराट् का वर्गीकरण होता है। यह एकदेशीय विचार नहीं है। इसमें व्यक्तित्व की मर्यादा का ध्यान नहीं रहता, 'सर्वभूतहित' की कामना पर ही लक्ष्य होता है । जनमेजय-भगवन्, इसका क्या तात्पर्य ? व्यास-परमात्मशक्ति सदा उत्थान का पतन और पतन का उत्थान किया करती है। इसी का नाम है दम्भ का दमन । स्वयं प्रकृति की नियामिका शक्ति कृत्रिम स्वार्थसिद्धि में रुकावट उत्पन्न करती है। ऐसे कार्य कोई जान-बूझ कर नहीं करत', और न उनका प्रत्यक्ष में कोई बड़ा कारण दिखाई पड़ता है। उलट-फेर को शान्त और विचारशील महापुरुष ही समझते हैं, पर उसे रोकना उनके वश की भी बात नहीं है, क्योंकि उसमें विश्व-भर के हित का रहस्य है । जनमेजय-तब तो मनुष्य का कोई दोष नहीं, वह निष्पाप है ! व्यास -(हंसकर) किसी एक तत्त्व का कोई क्षुद्र अंश लेकर विवेचना करने से इसका निपटारा नहीं हो सकता। पौरव, स्मरण रक्खो, पाप का फल दुःख नहीं, किन्तु एक दूसरा पाप है। जिन कारणों से भारत पुद्ध हुआ था, वे कारण या पाप बहुत दिनों से सञ्चित हो रहे थे। वह व्यक्तिगत दुष्कर्म नहीं था। जैसे स्वच्छ प्रवाह में कूड़े का थोड़ा-सा अंश रुक कर बहुत-सा कूड़ा एकत्र कर लेता है, वैसे ही कभी- कभी कुत्सित वासना भी इस अनादि प्रवाह में अपना बल संकलित कर लेती है। फिर जब उस समूह का ध्वंस होता है, तब प्रवाह में उसकी एक लड़ी बंध जाती है और फिर आगे चलकर वह कही-न-कही ऐसा ही प्रपञ्च रचा करती है। जनमेजय -उनका कहीं अवसान भी है ? व्यास-प्रशान्त महासागर ब्रह्मनिधि में । जनमेजय-आर्य, कुछ मेरा भी भविष्य कहिये । व्यास-वत्स, यह कुतूहल अच्छा नहीं। जो हो रहा है, उसे होने दो। अन्तरात्मा को प्रकृतिस्थ करने का उद्योग करा-मन को शान्त रखो। जनमेजय-पूज्यपाद, मुझे भविष्य जानने की बड़ी अभिलाषा है। जनमेजय का नाग यज्ञ : ३२९