पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/३५६

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या लज्जा मेरी अपना सुख रखना है परिणाम सुखद हैं; कड़वा फल चखना है अपमान शल्य से छिदी हुई है छाती निज दीन दशा पर दया नहीं क्या आती अपने स्वत्वों से स्वयं हाथ धोते हो क्यों निज स्वतन्त्रता की लज्जा खोते हो। तक्षक-देवि, जातीयता की प्रतिमूत्ति, तुम्हारी जो आज्ञा होगी, वही होगा ! जय, नागमाता की जय । सब-जय, नागमाता की जय ! वासुकि हम लोग उपहार लेकर जनमेजय की अगवानी करने नहीं जाएंगे ! नागगण-किन्तु मारेगे और मर जाएँगे ! मनसा-यही तो वीरों के उपयुक्त आचरण है ! अच्छा तो सावधान ! अश्व सम्भवतः अब यहाँ आना ही चाहता है, उसे पकटना चाहिये । [आस्तीक और मणिमाला का प्रवेश] आस्तीक--क्यों माँ, क्या तुमको रक्त-रञ्जित धरणी मनोरम जान पड़ती है ? एक प्राणी दूसरे का संहार करे, क्या इसके लिए तुम उत्तेजना देती हो ? मेरी मां यह क्या है ? मणिमाला-(तक्षक से) पिता जी, जबकि आर्यो ने इधर उपद्रव करना बन्द कर दिया है, और वे एक दूमरे रूप मे मन्धि के अभिलाषी है, तब फिर आप युद्ध के लिए क्यों उत्सुक हैं ? मनसा-बेटी, यदि तू जानती- मणिमाला-क्या ? मनसा-यही कि तेरे पिता को आग में जलाने के लिये वे ढूंढ़ते फिरते हैं, और इस नाग-जाति को धूल मे मिला देना चाहते है। आस्तीक-क्यों आप अपने को मानव-जाति से भिन्न मानती है ? क्या यह आप लोगों के कल्पित गौरव का दम्भ नही है। मनसा - किन्तु वत्स, क्या यह आर्यो का दम्भ नहीं है ? क्या वे तुम्हारे इस ऊँचे विचार को नही समझते ? आस्तीक-मां, तुम्हारा कथन ठीक है ! किन्तु जब एक दूसरे प्रकार से नाग- जाति के भाग्य का निपटारा होने को है, तब इस युद्ध-विग्रह से क्या लाभ ? आर्यों का अश्व आवेगा, घूमकर चला जायगा। हम लोगों की स्वाधीनता पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। जब हम युद्ध करके उनके सुव्यवस्थित राष्ट्र का नाश नहीं कर ३३६ : प्रमाद वाङ्मय