पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/३६४

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व्यास-वह क्या ? सरमा-महारानी वपुष्टमा का परिणाम चिन्ता का विषय है। व्यास-है अवश्य, किन्तु कोई भय नही । विश्वात्मा सबका कल्याण करता है। आस्तीक-तब क्या आज्ञा है ? व्यास-ठहरो, इस आश्रम मे सब प्राकृतिक साधन पर्याप्त है। तुम लोग यहीं रहो । जब तुम लोगो के जाने की आवश्यकता होगी, तब मैं स्वय भेज दूंगा। अभी तुम लोग विश्राम करो। (वेदव्यास जाते हैं) वपुष्टमा-बहन सरमा, मुझे क्षमा करो। मैने तुम्हारा बड़ा अनादर किया था। आज मुझे तुम्हारे सामने आँख उठाते लज्जा आती है। तुमने मुझपर जैसी विजय पायी है, वह अकथनीय है। सरमा-नही महारानी, वह आपके सिंहासन का आवेश था। वास्तविक स्थिति कुछ और ही थी, जो सब मनुष्यो के लिए समान है। वहीं स्त्री जाति के सम्मान का प्रश्न था, नाग और आर्य-जाति की समस्या नही थी। नाग-परिणय से तो मैं न्याय पाने की भी अधिकारिणी न थी। किन्तु क्या आपको विदित है कि कितने ऐसे शुद्ध आर्यों का भी अधिकारियो के द्वारा प्रतिदिन बहुत अपमान होता है, जो राज-सिंहासन तक नही पहुंच पाते । पर अब उन बातो की चर्चा ही क्या ! वपुष्टमा-किन्तु बहन, मै तो किसी ओर की नही रही। सम्राट् की इच्छा क्या होगी, कौन जाने । आर्यावर्त भर मे यह बात फैल गयी होगी कि सम्राज्ञी- सरमा -भगवान् की दया से सब अच्छा ही होगा, आप चिन्तित न हों। पलिये, स्नान कर आवें।.(दोनों जाती हैं) आस्तीक-क्यो माणवक, आज तो तुम्हारे समस्त अपमान का बदला चुक गया ! क्या अब भी तुम इस दुखिया रानी को शुद्ध हृदय से क्षमा न करोगे। माणवक-भाई ! मै तो वपुष्टमा को कभी का क्षमा कर चुका। नहीं तो अब तक पकड़कर नागो के हाथ सौप देता । मां की आज्ञा मैं टाल नही सका । आस्तीक, यदि सच पूछो तो मैंने इस प्रतिहिंसा का आज से परित्याग कर दिया। देखो, इस तपोवन मे शस्य श्यामला धरा और सुनील नभ का, जो एक-दूसरे से इतने दूर है, कसा सम्मिलन है। आस्तीक-भाई, यह भगवान् बादरायण का आश्रम है। देखो, यहाँ की लता- वल्लरियों मे, पशु-पक्षियो मे, तापस-बालको मे परस्पर कितना स्नेह है ! ये सब हिलते-डुलते और चलते-फिरते हुए भी मानो गले से लगे हुए है। यहाँ के तृण को भी एक शान्ति का आश्वासन पुचकार रहा है। स्नेह का दुलार, स्वार्थ-त्याग का प्यार, मर्वत्र बिखर रहा है । ३४४ : प्रसाद वाङ्मय