पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/३६५

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? आज माणवक - भाई आस्तीक, बहुत दिन हुए, हमने और तुमने एक-दूसरे को गले नही लगाया । आओ आज- आस्तीक-(गले लगाकर) मेरे शैशव-सहचर ! वह विशुद्ध क्रीडा, वह बाल्यकाल का सुख, जीवन भर का पाथेय है । क्या वह कभी भूलने योग्य से हम-तुम फिर वही पुराने मित्र और भाई है। जी चाहता है, एक बार फिर हाथ मिलाकर उसी तरह खेले-कूदे । माणवक - भाई, क्या वह समय फिर आने को है ? यदि मिल सके, तो मै कह सकता हूँ कि उन दस वर्षों के लिए शेष नब्वे वर्षों का जीवन दे देना भी उपयुक्त है । क्या ही रमणीक स्मृति है। आस्तोक-- किन्तु भाई, हम लोगो का कुछ कर्त्तव्य भी है। दो भयंकर जातियाँ क्रोध से फुफकार रही है। उनमे शान्ति स्थापित करने का हमने बीडा उठाया है। माणवक-भाई, चिन्ता न करो। भगवान की कृपा से तुम सफल होगे। प्रभु की बड़ी प्रभुता है। [दोनों प्रार्थना करते है] नाथ, स्नेह की लता सीच दो, शानि जलद वर्षा कर दो। हिंसा धूल उड रही मोहन, सूखी क्यारी को भर दो। समता की घोषणा विश्व मे, मन्द्र मेघ गर्जन कर दो। हरी भरी ही सृष्टि तुम्हारी, करुणा का कटाक्ष कर दो। (प्रस्थान) दृश्या न्त र सप्तम दृश्य [कानन में मनसा और वासुकि] वासुकि-बहन, अब क्या करना होगा ? तक्षक बन्दी है। उनके साथ मणिमाला भी है। पहले के भयकर यज्ञ मे जो बात नही होने पाई थी, वही इस बार अनायास हो गयी। अपनी मूर्खता से आज नागराज स्वथ पूर्णाहुति बनने गये। मनसा-भाई, मुझसे क्या कहते हो । क्या मै उस उत्तेजना की एक सामग्री नही हूँ? हाय-हाय ! मैंने ही तो इस नाग-जाति को भडकाया था। आज देख रहे हो, यहाँ कितने घायल पडे है। जाति के - रशिष्ट थोडे-से लोगो म भी कितने ही बेकाम हो गये, और कितन जलाये गये । जान पटता है कि इस जाति के लिए प्रलय समीप है। इस परिणाम का उत्तरदायित्व मुझ पर है । हा, मैने यह क्या किया ! जनमेजय का नाग यज्ञ : ३४५