पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/३८१

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बालक-मां, आज वहां लड़कों में कामना नहीं आपी। इससे बहुत कम खेल- कूद हुमा। [एक स्त्री का प्रवेश] स्त्री-अजी कहाँ हो बहन ! कुछ सुना ! माता-क्यों बहन, क्या है ? आओ, बैठो।। स्त्री-अरे आज तो एक नयी बात हुई है । माता-क्या? स्त्री-समुद्र के उस पार से एक युवक आया है । माता-सपना तो नही देख रही है। स्त्री -क्या ! मैं अभी देखती आ रही हूँ। माता-कहाँ है । वह कहाँ बैठा है ? स्त्री -कामना के घर में। उसी के साथ तो वह द्वीप में आया है। माता-वह उसे क्यों ले आयी ? क्या किसी ने रोका रही ? उपासना-मन्दिर से क्या आदेश मिला कि वह नवीन मनुष्य इस देश में पैर रखने का अधिकारी हुआ, क्योंकि यह एक नयी घटना है। स्त्री-आज-कल तो उपासना का नेतृत्व उसी कामना के हाथ में है, तब दूसरा कौन आदेश देगा? बालक - वह कैसा हे मां ? बालिका-क्या हमी लोगों के जैसा है ? स्त्री--और तो सब कुछ हमी लोगों का-सा है। केवल एक चमकीली वस्तु उसके सिर पर थी। कामना कहती है, अब उसने वह मुझे दे दी है। उसे सिर में बांधकर कामना बड़ी इठलाती हुई सबसे बातें कर रही है। [एक किशोरी बालिका का प्रवेश] किशोरी -सब लोग चलो, आगन्तुक के लिए एक घर की आवश्यकता है। कामना ने सहायता के लिये बुलाया है। [सब जाते हैं, लीला और सन्तोष का प्रवेश] लीला--हां प्रियतम ! इस पूर्णिमा को हम लोग एक हो जायेंगे। सन्तोष-परन्तु तुम्हारी सखी तो- लोला--अरे सुना है, उसने भी वरण किया है। सन्तोष-किसे ? वह तो इससे अलग रहना चाहती है ! लीला--कोई समुद्र-पार से आया है। सन्तोष हां, आने का समाचार तो मैंने भी सुना है; पर उस नवागंतुक से क्या इस देश की कुमारी ब्याह करेगी ? कामना : ३६१