पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४०१

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है, वक्षस्थल पर तनाव है, और बलकों में निराली उलझन है, चाल में लचीली लचक है ? तू आंखें बन्द रख । दूसरा-उस पर चमकते हुए सोने के कंकण-हारों से सुशोभित अम्लान आभूषण-परिपाटी मूर्ख पहला-पागल है। विवेक-मैं पागल हूँ ! अच्छा है जो सज्ञान नही हूँ, इस वीभत्स कल्पना का आधार नही हूँ। हाय ! हमारे फूलो के द्वीप के फूल अब मुरझाकर अपनी डाल से गिर पड़ते है । उन्हें कोई छूता नही। उनके सौरभ से द्वीप-वासियों के घर अब नही भर जाते । हाय मेरे प्यारे फूलो ! (जाता है) दोनों-जा, जा ! (छिप जाते हैं) [शान्तिदेव का प्रवेश शान्तिदेव--मैं इसे कहाँ रक्खू, किधर से चलू? है मुझे क्या हो गया ! क्यों भयभीत हो रहा हूँ ? इस द्वीप मे तो यह बात नही थी परन्तु तब सोना भी तो नही था ! अच्छा, इस पगडण्डी से निकल चलूं। [बगल से निकलना चाहता है कि दोनों छिपे हुये तीर चलाते हैं, शान्तिदेव गिर पड़ता है, दोनों आकर उसे दबा लेते हैं, सोना खोजते हैं] [अकस्मात् शिकारियों के साथ कामना का प्रवेश] कामना यह क्या, तुम तोग क्या कर रहे हो ? लीला-हत्या- विलास-घोर अपराध ! कामना-(शिकारियों से) बांध लो इनको, ये हत्यारे है । [सब दोनों को पकड़ लेते हैं । शान्तिदेव को उठाकर ले जाते है] दृश्या न्त र तृतीय दृश्य ? [कुटीर में विनोद और लीला]] लीला मेरा स्वर्ण पट्ट विनोद-अभी तक तो आशा-ही आशा है । लीला-आज तक तो आशा-ही आशा है विनोद--परन्तु अब सफलता भी होगी। लीला-कैसे? कामना : ३८१