पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४०२

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विनोद 1-अपराध होना आरम्भ गया है। अब तो एक दिन विचार भी होगा। देखो, कौन-कौन खेल होते है ! लीला-तुम उन दोनों को कहाँ रख आये ? विनोद-पहले विचार हुआ कि उपासना-गृह या संग्रहालय में रक्खे जायें। फिर यह निश्चित हुआ कि नही, मित्र-कुटुम्ब के लिये जो नया घर बन रहा है, उसी में रखना चाहिए और उन शिकारियो को वहाँ रक्षक नियत किया गया है । लोला -इस योजना से कुछ-न-कुछ तुम्हे मिलेगा। विनोद-परन्तु लीला, हम लोग कहां चले जा रहे है, कुछ समझ रही हो? समझ में आने की ये बाते है ? लीला-अच्छी तरह। (मदिरा का पात्र भरती हुई) कही नीचे, कही बड़े अन्धकार मे। विनोद - फिर मुझे क्यो प्रोत्साहित कर रही हो ? [लीला पात्र मुंह से लगा देती हैं, विनोद पीता है] लीला-आज तुम्हे गाना सुनाऊँगी। विनोद-(मद-विह्वल होकर) सुनाओ प्रिये । [लीला गाती है] कैसी सलोनी निराली है, देखो आयी मतवाली है। आओ साजन मधु पिये, पहन फूल के हार फूल-सदृश यौवन खिला, है फूल की बहार भरी फलों से बेले की डाली है। छटा० ॥ शीतल धरती हो गयी, शीतल पडी फुहार शीतल छाती से लगो, शीतल चली बयार सभी ओर नयी हरियाली है। छटा०॥ [सहसा कामना का कई युवकों के साथ प्रवेश] कामना-फूल के हार कहाँ लीला ! तपा हुआ सोने का हार है। शीतलता कहां, ज्वाला धधक उठी है । यह आनन्द करने का समय नहीं है। विनोद -क्या है रानी? कामना-विनोद, ये शिकारी उन अपराधियों के रक्षक है, इन्हें दिन-रात वहाँ रहना चाहिये । तब इनके जीवन-निर्वाह का प्रबन्ध विनोद-जैसी आज्ञा हो। [विलास का प्रवेश छटा घटा ३८२ : प्रसाद वाङ्मय