पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४११

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- [संकेत करती है] लीला-चुप, तू भी वही- लालसा-आह, यह लो ! लीला-मन नहीं लगा, तो तेरे पास चली आयी। लालसा-तो मेरे पास मन लगाने की कौन-सी वस्तु है ? अकेली बैठी हुई दिन बिताती हूँ गाती हूँ, और सोती हूँ ! लीला-तेरे आभूषणों की तो द्वीप-भर में धूम है । लालसा-परन्तु दुर्भाग्य की तो न कहोगी। लीला-तू तो बात भी लम्बी-चौड़ो करने लगी। अभी-अभी तो देखा, विलास चले जा रहे है। लालसा--और तू कहाँ से आ रहो है, वह भी बताना पड़ेगा। लीला-चुप, देख रानी आ रही है । [रक्षकों के साथ रानी का प्रवेश, लालसा और लीला स्वागत करती हैं, संकेत करने पर सैनिक बाहर चले जाते हैं] कामना-लालसा, तू लोगों से अब कम मिलती है, यह क्यो ? लालसा-रानी, जी नही चाहता। कामना-इसी से तो मैं स्वयं चली आयी। लालसा-यह आपकी कृपा है कि प्रजा पर इतना अनुग्रह है । लीला-रानी, इसे बड़ा दुःख है ! कामना-मेरे राज्य में लालसा-हाँ रानी ! मै अकेली हूँ। अपने स्वर्ण के लिए दिन-रात भयभीत रहती हूँ। कामना--लालसा, सब के पास जब आवश्यकतानुसार स्वर्ण हो जायगा, तभी यह अशान्ति दबेगी। लालसा-रानी, यदि क्षमा मिले, तो एक उपाय बतलाऊँ। रानी-हां-हाँ, कहो। लालसा-यह तो सब को विदित है कि शान्तिदेव के पास बहुत सोना है । परन्तु यह कोई नही जानता कि वह कहां से आया ? लालसा-नदी-पार के देश से। आज तक इधर के लोग न जाने कब से यही जानते थे कि 'उस पार न जाना-उधर अज्ञात प्रदेश है'। परन्तु शान्तिदेव ने साहस करके उधर की यात्रा की थी, वह बहुत-से पशुओ और असभ्य मनुष्यों से बचते हुए वहां से यह सोना ले आये। जब नदी इस पार आये, तो लोगों ने देख लिया, और इसी मे उनकी हत्या भी हुई। कामना: ३९१