पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४१३

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? . वह सुख के संगीत अब इस देश में कहाँ सुनायी पड़ते है जिनसे वृक्षों मे-कुञ्जों में हलचल हो जाती थी और पत्थरों मे भी झनकार उठती थी। अब केवल एक क्षीण क्रन्दन उसके अट्टहास मे बोलता है। संतोष-देवि, तुम्हारे और कौन करुणा-यह प्रश्न इस द्वीप मे नही था। सब एक कुटुम्ब थे, परन्तु अब तो यही कहना पड़ेगा कि मै शान्तिदेव की बहन हूँ। जब से उसकी हत्या हुई, मैं निस्सहाय हो गयी। लालसा ने सब धन अपना लिया और घर मे भी मुझे न रहने दिया। वह कहती है कि इस घर और सम्पत्ति पर केवल मेरा अधिकार है और रहेगा । मै इम स्थान पर कुटीर बनाकर रहती हूँ। अकेली मे अन्न नहीं उत्पन्न कर सकती, जंगली फलो पर निर्वाह करती हूँ। और कोई भी ससार के पदार्थ मै नही पा सकती, क्योकि सबके विनिमय के लिये अब सोना चाहिये । प्राकृतिक अमूल्य पदार्थो का मूत्य हो गया- वस्तु के बदले आवश्यक वस्तु न मिलने मे प्राकृतिक साधन भी दुर्लभ है । सोने के लिए सब पागल है । अकारण नोई बैठने नहीं देता। जीवन के समस्त प्रश्नो के मूल में अर्थ का प्राधान्य है। मै दूर म उन धनियो के परिवार वा दृश्य देखती हूँ। वे धन की आवश्यकता से इतने दरिद्र हो गये हे कि उसके बिना उनक बच्चे उन्हे प्यारे नही लगते । धन का--अर्थ का - उपभोग करने के लिए वच्चो वी - दानो की-आवश्यकता होती है। मै अपनी निर्धनता के आंसू पीकर मन्तोप करती हैं और लौटकर इमो कुटीर में पड़ी रहती हूं। संतोष-धन्य तू रहन ! माज से मै तेरा भाई हूँ, मै तेरे लिये हल चलाऊंगा, तू दु ख न कर, मै तेरा मव काम करूंगा। जिसका कोई नही है, मै उसी का होकर देखूगा कि इसमे क्या सुख है । हॉ, नाम नो वताया ही नही ! करुणा-करुणा ! संतोष-और मेरा नाम संतोष है बहन करुणा-अच्छा भाई, चलो कुछ फल है खा लो। [दोनों कुटीर में जाते हैं] दृश्या न्त र - अष्टम दृश्य [जंगल में शिकारी लोग मांस भून रहे है, मद्य चल रहा है, नये शिकार के लिए खोज हो रही है, एक ओर से विलास और विनोद का प्रवेश, दूसरी ओर से कामना, लालसा और लाला का आना, विनोद तलवार निकालकर सिर से लगाता है, वैसा ही सब करते हैं] कामना : ३९३