पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४२६

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, तरंगिणी-धारो, माता और सन्तानो का विनोद देखने से जिसे छुट्टी हो, वह तुम्हारी ओर देखे। लालसा-तुम्हारे वाक्य मेरी कर्मेन्द्रियो को मांग रहे है । मैं कैसे छोड +, कैसे न दूं। ठहरो, मुझे इस सम्पूर्ण मनुष्यत्व को आँखो से देख लेने दो। सैनिक-जाओ रमणी, लौट जाओ ! तुम्हारा सेना-निवेश दूर है। लालसा-फिर तुम्हे इतने रूप की क्या आवश्यकता थी, जब हृदय ही न था? [तिरस्कार से देखता हुआ सैनिक जाता है] लालसा-(स्वगत) चला जायगा। यो नही (प्रकट) अच्छा तो सुनो। क्या तुम अपनी स्त्री को भी नही छुडाना चाहते ? सैनिव-(लौटकर) अवश्य छुडाना चाहता हूं-प्राण भी देकर । लालसा-तुम्हारे शिष्ट आचरण का प्रतिदान करूंगी। चलोगे, डरते तो नही? [दोनों जाते है, विलास का प्रवेश विलास-यह उन्मत्त विलास-लालसा | वक्ष स्थल मे प्रबल पीडा। ओह ! अविश्वासिनी स्त्री, तूने मेरे पद की मर्यादा, वीरता का गोरव और ज्ञान की गरिमा सब डुबा दी ! जी चाहता है, इस अतृप्त हृदय मे छुरा डालकर नचा दूं। (ठहरकर) परन्तु विलास | विलास । तुझे क्या हो गया है ? तुझे इमसे क्या ? राज्य यदि करना है, तो इन छोटी-छोटी बातो पर क्यो ध्यान देता है ? अपनी प्रतिभा से शासन कर! [विवेक आता है] विवेक-आहा ! मंत्री और सेनापति महाशय, नमस्कार परन्तु नहीं, जब मंत्री और सेनापति दोनो पद-पदार्थ एक आधार मे है तब राजा क्या कोई भिन्न वस्तु है । दोनो की सम्मिलित शक्ति ही तो राजशक्ति है। अतएव हे राज-मंत्री सेनापति । हे दिक्काल पदार्थ ! हे जन्म जीवन और मृत्यु | आपको नमस्कार । विलास-(विवेक का हाथ पकड़ कर) बूढे, सच बता, तू पागल है या कोई बना हुआ चतुर व्यक्ति ? यदि तुझे मार डालूं । विवेक--(हंसकर) अरे जिसे इतनी पहचान नही कि मैं पागल हूँ या स्वस्थ, वह राज-कार्य क्या करेगा ? विलास-अच्छा, तुम यहाँ क्या करने आये हो ? विवेक-लड़ाई कभी नही देखी थी, बड़ी लालसा थी, उसी से- ४०६ : प्रसाद वाङ्मय