पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४२७

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विलास-तो तू ही वह व्यक्ति है, जिसने बहुत-से घायलों को पास की अमराई में इकट्ठा कर रखा है और उनकी सेवा करता है ? विवेक-यह भी यदि अपराध हो, तो दण्ड दीजिये; नहीं तो समझ लीजिये कि पागलपन है। विलास-फिर विचार करूंगा, इस समय जाता हूँ। विवेक-विचार करते जाइये, कलेजा फाड़ते जाइये, छुरे चलाते रहिये और विचार करते रहिये । विचार से न चूकिये, नही तो- विलास-चुप- विवेक-आहा, विचार और विवेक को कभी न छोड़िये, चाहे किसी के प्राण ले लीजिये, परन्तु विचार करके । [विलास सरोष चला जाता है, विवेक दूसरी ओर जाता है] दृश्या न्त र चतुर्थ दृश्य [खेत में करुणा की कुटी, संतोष अन्न की बालें एकत्र कर रहा है, दुर्वृत्त आता है] दुर्वृत्त-क्यों जी, इस खेत का तुम कितना कर देते हो ? संतोष-कर ! दुर्वृत्त-हाँ । रक्षा का कर । सन्तोष क्या इस मुक्त प्राकृतिक दान में भी विगी आपत्ति का डर है ? और क्या उन आपत्तियों से तुम किसी प्रकार इनकी रक्षा भी कर सकते हो ? दुर्वृत्त-मुझे विवाद करने का गमय नही है । सन्तोष --तब तो मुझे भी छुद्दी दीजिये, बहुत काम करना है। दुर्वृत्त- (क्रोध से देखता हुआ) अच्छा जाना हूँ । [करुणा आती है] करुणा-भाई, तुम्हें काम करते बहुत विलम्ब हुआ। थक गये होंगे-चलो, कुछ खालो 1 सन्तोष-बहन ! इस गांठ को भीतर धर दूं, तो चलं । [परिश्रम से थका हुआ सन्तोष बोझ उठाता है, गिर पड़ता है, उसके पैर में चोट आती है, करुणा उसे उठाकर नीतर ले जाती है] [एक ओर से वन-लक्ष्मी, दूसरी ओर से महत्त्वाकांक्षा का प्रवेश वन-लक्ष्मी-देखो, तुम्हारी कर लेने की प्रवृत्ति ने अन्नों के सत्व को हल्का कर कामना:४०७