पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४२८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

दिया, कृषक थकने लगे हैं, खेतो को सींचने की आवश्यकता हो गयी। उर्वरा पृथ्वी को भी कृत्रिम बनाया जाने लगा है। महत्त्वाकांक्षा-विलास के लिए साधन कहाँ से आयेंगे? यह जंगलीपन है। अकर्मण्य होकर प्रकृति की पराधीनता क्यों भोग करें। जब शक्ति है, फिर अभाव क्यों रह जाय? वन-लक्ष्मी-विलास की महत्त्वाकांक्षा ! तुम्हारा कही अन्त भी है । कब तक और कहाँ तक तुम मानव-जाति को झगड़ते देखना चाहती हो? महत्त्वाकांक्षा-प्रकृति अपनी सीमा क्यों नही बनाती। फूलों की कोमलता और उनका सौरभ एक ही प्रकार का रहने से भी तो काम चल जाता। फिर इतनी शिल्पकला, पंखड़ियों की विभिन्नता, रंग की सजावट क्यों ? तब हम अनन्त साधनों से अपने सुख को अधिकाधिक सम्पूर्ण क्यों न बनायें। वन-लक्ष्मी-दौड़ाओ काल्पनिक महत्त्व के लिए। अतृप्ति के कशाघात से उत्तेजित करो। परन्तु प्रकृति के कोष से अनावश्यक व्यय करने का किसको अधिकार है ? यह ऋण है । इसे कभी भी कोई चुका सकेगा? प्राकृतिक पदार्थो का अपव्यय करके भावी जनता को दरिद्र ही नही बनाया जा रहा है, प्रत्युत उनकी वृत्ति का उद्गम ही बन्द कर देने का उपक्रम है। वे अपने पूर्वजों के इस ऋण को चुकाने के लिए भूखों मरेगे। महत्त्वाकांक्षा-मरे; कौन निर्बलों का जीवन अच्छा समझता है ! देखो पही न, सन्तोष और करुणा । इनकी क्या अवस्था है। वन-लक्ष्मी-इन पर तुम्हे दया नही; ये सच्चे है, सृष्टि की अमूल्य सम्पत्ति हैं । इनकी रक्षा करो। महत्त्वाकांक्षा--(हंसती है) तुम सरल हो। वन-लक्ष्मी-तुम कुटिलता मे ही सौन्दर्य देखती हो । महत्त्वाकांक्षा -तरल जल की लहरें भी सरल नही। बांकपना ही तो सौन्दर्य है । मैं उसी को मानती हूँ। करुणा और सन्तोष सृष्टि की दुर्बलताएं हैं। मेरे पास उनके लिये सहानुभूति नहीं। (जाती है) वन-लक्ष्मी-मेरा मृदुल कुटुम्ब ! मेरा कोमल शृंगार ! इस क्रूर महत्त्वाकांक्षा से झुलस रहा है । मैं उन्हें आलिंगित करूंगी। (खेत में बैठकर एक तृणकुसुम को देखती हुई) तू कुछ कह रहा है। तेरा कुछ सन्देश है। तेरी लघुता एक महान् रहस्य है । मैं तेरे साथ स्वर मिलाकर गाऊँगी। [गाती है] पृथ्वी की श्यामल पुलकों में सात्विक स्वेद-बिन्दु रंगीन । नृत्य कर रहा हिलता हूँ मैं मलयानिल से हो स्वाधीन ॥ ४०८:प्रसाद वाङ्मय