पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४६२

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? भटार्क-हो। शर्वनाग-ऐसा! [कोलाहल, भीषण उल्कापात] भटार्क-ओह, ठीक समय हो गया ! अच्छा मैं अभी आता हूँ। [द्वार खोलकर भटार्क भीतर जाता है। रामा का प्रवेश] रामा-क्यो, तुम आज यही हो सर्वनाग-मैं, मैं यही हूँ, तुम कैसे ? रामा- मूर्ख ! महादेवी सम्राट् को देखना चाहती है, परन्तु उनके आने मे बाधा है । गोबर-गणेश ! तू कुछ कर सकता है ? शर्वनाग-मैं क्रोध से गरजते हुए सिह की पूंछ उखाड सकता हूँ; परन्तु सिहवाहिनी ! तुम्हे देखकर मेरे देवता कूच कर जाजे हे । रामा -(पैर पटक कर) तुम कीडे से भी अपद थे । शर्वनाग-न-न-न-न, ऐसा न कहो, मै सब कुछ हूँ। परन्तु मुझे घबराओ मत, समझाकर कहो ! मुझे क्या करना होगा ? रामा-महादेवी देवकी की रक्षा करनी होगी, समझा ? क्या आज इस सम्पूर्ण गुप्त-साम्राज्य मे कोई ऐसा प्राणी नही, जो उनकी रक्षा करे | शत्रु अपने विषले डंक और तीखे दाढ़ संवार रहे है । पृथ्वी के नीचे कुमन्त्रणाओ का क्षीण भूकम्प चल रहा है। शर्वनाग-यही तो मै भी कभी-कभी सोचता था । परन्तु"" रामा-तुम, जिस प्रकार हो सके, महादेवी के द्वार पर जाओ। मैं जाती हूँ। (जाती है) [एक सैनिक का प्रवेश] सैनिक -नायक ! न जाने क्यो हृदय दहल उठा है, जैसे सनसन करती हुई, डर से, यह आधी रात खिसकती जा रही है ! पवन मे गति है, परन्तु शब्द नही। 'सावधान' रहने का शब्द मैं चिल्लाकर कहता हूँ, परन्तु मुझे ही सुनाई नही पड़ता है । यह सब क्या है । नायक ? शर्वनाग-तुम्हारी तलवार कही भूल तो नही गयी है ? सैनिक -म्यान हत्की-सी लगती है, टटोलता हूँ पर"... शर्वनाग-तुम घबराओ मत, तीन साथियो को साथ लेकर घूमो, सबको सचेत रखो। हम इसी शिला पर है, कोई डरने की बात नही । [सैनिक जाता है, फाटक खोलकर पुरगुप्त निकलता है, पीछे-पीछे भटार्क और सैनिक] पुरगुप्त -नायक शर्वनाग ! ४४२: प्रसाद वाङ्मय