पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४६३

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शर्वनाग -जय हो कुमार की ! क्या आज्ञा है ? पुरगुप्त-तुम साम्राज्य की शिष्टता सीखो। शर्वनाग -दास चिर-अपराधी है कुमार ! (सिर झुका लेता है) भटार्क-इन्हें महादेवी के द्वार पर जाने की आशा दीजिये, ये विश्वस्त सैनिक वीर हैं। पुरगुप्त-जाओ, तुम महादेवी के द्वार पर। जैसा महाबलाधिकृत ने कहा है, वैसा करना। शर्वनाग-जैसी आज्ञा। (अपने सैनिकों को साथ लेकर जाता है | दूसरे नायक और सैनिक परिक्रमण करते हैं) भटार्क-कोई भी पूछे तो यह मत कहना कि सम्राट् का निधन हो गया है हां, बढ़ी हुई अस्वस्थता का समाचार बतलाना और सावधान, कोई भी-चाहे वह कुमारामात्य ही क्यों न हों -भीतर न आने पावें। तुम यही कहना कि परम भट्टारक अत्यन्त विकल है, किमी से मिलना नहीं चाहते ' समझा ? नायक--अच्छा... [दोनों जाते हैं, फाटक बन्द होता है] नायक -(सैनिकों से) आज बड़ी विकट अवस्था है, भाइयो सावधान ! [कुमारामात्य पृथ्वीसेन, महादण्डनायक और महाप्रतिहार का प्रवेश] महाप्रतिहार-नायक, द्वार खोलो, हम लोग परम भट्टारक का दर्शन करेंगे। नायक-प्रभु ! किसी को भीतर जाने की आज्ञा नही है। महाप्रतिहार- (चौंककर) आज्ञा ! किमकी आज्ञा ? अबोध तू नही जानता- सम्राट् के अन्त.पुर पर स्वयं सम्राट का भी उतना अधिकार नही जितना महा- प्रतिहार का ? शीघ्र द्वार उन्मुक्त कर । नायक-दण्ड दीजिये प्रभु, परन्तु द्वार न खुल सकेगा। महाप्रतिहार तू क्या कह रहा है ? नायक-जैसी भीतर मे आज्ञा मिली है। कुमारामात्य -(पैर पटककर) ओह ! महादण्डनायक विलम्ब असह्य है, नायक ! द्वार से हट जाओ। महाप्रतिहार-मैं आजा देता हूँ कि तुम अन्त.पुर से हट जाओ युवक ! नही तो तुम्हें पदच्युत करूंगा। नायक-यथार्थ है। परन्तु मैं महाबलाधिकृत की आज्ञा से यहाँ हूँ, और मैं उन्हीं के अधीनस्थ सैनिक हूँ। महाप्रतिहार के अन्तःपुर-रक्षकों में मैं नहीं हूँ। महाप्रतिहार- --क्या अन्तःपुर पर भी सैनिक नियंत्रण है ? पृथ्वीसेन ! स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य : ४३