पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४६४

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पृथ्वीसेन-इसका परिमाण भयानक है। अन्तिम शैय्या पर लेटे हुए सम्राट की आत्मा को कष्ट पहुंचाना होगा। महाप्रतिहार -अच्छा (कुछ देखकर) हां, शर्वनाग कहां गया? नायक-उमे महाबलाधिकृत ने दूसरे स्थान पर भेजा है। महाप्रतिहार-(क्रोध से) मूर्ख शर्वनाग ! महादण्डनायक--(कान लगाकर अन्तःपुर का क्षीण क्रन्दन सुनते हुए) क्या सब शेष हो गया? हम अवश्य भीतर जायेंगे। [तीनों तलवार खींच लेते हैं, नायक भी सामने आ जाता है, द्वार खोलकर पुरगुप्त और भटार्क का प्रवेश] पृथ्वीसेन-भटार्क ! यह सब क्या है ? भटार्क-(तलवार खींचकर सिर से लगाता हुआ) परम भट्टारक राजा- धिराज पुरगुप्त की जय हो ! माननीय कुमारामात्य, महादण्डनायक और महाप्रतिहार साम्राज्य के नियमानुसार, शस्त्र-अर्पण करके, परम भट्टारक का अभिवादन कीजिए। [तीनों एक-दूसरे का मुंह देखते हैं] महाप्रतिहार-तब क्या सम्राट् कुमारगुप्त महेन्द्रादित्य अब संसार मे नही है ? भटार्क-नही। पृथ्वीसेन--परन्तु उत्तराधिकारी युवराज स्कन्दगुप्त ? पुरगुप्त-चुप रहो । तुम लोगो को बैठकर व्यवस्था नही देनी होगी। उत्तरा- धिकारी का निर्णय स्वयं स्वर्गीय सम्राट् कर गये हैं। पृथ्वीसेन-परन्तु प्रमाण ? पुरगुप्त-क्या तुम्हे प्रमाण देना होगा ? पृथ्वीसेन पुरगुप्त-महाबलाधिकृत ! इन विद्रोहियों को बन्दी करो। [ भटार्क आगे बढ़ता है ] पृथ्वीसेन-ठहरो भटार्क ! तुम्हारी विजय हुई, परन्तु एक बात"" पुरगुप्त-आधी बात भी नही, -न्दी करो। पृथ्वीसेन–कुमार ! तुम्हारे दुर्बल और अत्याचारी हाथों मे गुप्त-साम्राज्य का राजदण्ड टिकेगा नही। सम्भवतः तुम साम्राज्य पर विपत्ति का आवाहन करोगे। इसलिये कुमार ! इससे विरत हो जाओ। पुरगुप्त-महाबलाधिकृत ! क्यों विलम्ब करते हो? भटार्क -आप लोग शस्त्र रखकर आज्ञा मानिये । महाप्रतिहार-आततायी ! यह स्वर्गीय आर्य चन्द्रगुप्त का दिया हुआ खड्ग तेरी आज्ञा से नहीं रखा जा सकता। उठा अपना शस्त्र और अपनी रक्षा कर । -अवश्य। ४४:प्रसाद वाङ्मय