पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४७८

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प्रपंचबुद्धि-ठहरो भटार्क। मुझे पूछने दो। क्यों शर्व ! तुमने जो अस्वीकार किया है, वह क्यों-पाप समझ कर ! शर्वनाग-अवश्य । प्रपंचबुद्धि-तुम किसी कर्म को पाप नही कह सकते, वह अपने नग्न रूप में पूर्ण है-पवित्र है । संसार ही युद्ध-क्षेत्र है, इसमें पराजित होकर शस्त्र अर्पण करके- जीने से क्या लाभ ? तुम युद्ध में हत्या करना धर्म समझते हो ! परंतु दूसरे स्थल पर अधर्म? शर्वनाग--हाँ। प्रपंचबुद्धि -मार डालना, प्राणी का अंत कर देना, दोनों स्थलों में एक-सा है केवल देश और काल का भेद है-यही न ! शर्वनाग-हां, ऐसा ही तो। प्रपंचबुद्धि -तब तुम स्थान और समय की कमौटी पर कर्म को परखते हो, इसी से कर्म के अच्छे और बुरे होने की जांच करते हो। शर्वनाग-दूसरा उपाय क्या ? प्रपंचबुद्धि-है क्यों नही। हम कर्म की जाँच परिणाम से करते है, और यही उद्देश्य तुम्हारे स्थान और समय वाली जांच का होगा। शर्वनाग-परंतु जिसके भावी परिणाम को अभी तुम देख न सके, उसके बल पर तुम कैसे पूर्व कर्म कर सकते हो? प्रपंचबुद्धि -आशा पर-जो सृष्टि का रहस्य है ! आओ इमका एक प्रत्यक्ष उदाहरण दें। (मदिरा का पात्र भरता है | स्वयं पीकर सबको बार-बार पिलाता है) प्रपंचबुद्धि-क्यों, कैसी कड़वी थी ? शर्वनाग-उँह, हृदय तक लकीर खिंच गई। भटार्क-परंतु अब तो एक आनंद का स्रोत हृदय मे बहने लगा है । शर्वनाग-मैं नाचूं (उठना चाहता है) प्रपंचबुद्धि-ठहरो-मेरे माथ ! (उठकर दोनों नाचते हैं अकस्मात् लड़खड़ाकर प्रपंचबुद्धि गिर पड़ता है । उसे चोट लगती है) भटार्क-अरे रे ! (सम्हलकर उठाता है) प्रपंचबुद्धि-कुछ चिंता नही। शर्वनाग-बड़ी चोट आई। प्रपंचबुद्धि-परंतु परिणाम अच्छा हुआ -तुम लोगों पर विपत्ति आने वाली थी। भटार्क-वह टल गई क्या ? (आश्चर्य से देखता है) ४५८प्रसाद वाङ्मय