पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४९५

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वह कौन ? ओ ? राजकुमारी ? [देवसेना का प्रवेश-दूर पर उसकी परिचारिकायें] देवसेना-विजया ! सायंकाल का दृश्य देखने शिप्रातट पर तुम भी आ गई हो ! विजया-हाँ, राजकुमारी। (शिर झुका लेती है) देवसेना--विजया, अच्छा हुआ, तुमसे भेंट हो गई, मुझे कुछ पूछना था। विजया-पूछना क्या है ? देवसेना-नुमने जो किया उसे सोच-समझ कर किया है-कही तुम्हारे दंभ ने तुमको छल तो नही लिया ? तीव्र मनोवृत्ति के कशाघात ने तुम्हें विपथगामिनी तो नही बना दिया ? विजया-राजकुमारी ! मै अनुगृहीत हूँ। उस कृपा को नहीं भूल सकती जो आपने दिखाई है। परंतु अब और प्रश्न करके मुझे उत्तेजित करना ठीक नहीं । देवसेना-(आश्चर्य से) क्यो विजया। मेरे सखी :नोचित मरल प्रश्नों में भी तुम्हें व्यंग सुनाई पड़ता है ? गा क्या इसमे भी प्रमाण की आवश्यकता है ? (सरोष) राजकुमारी ! आज से मेरी ओर देखना मत । मुझे कृत्या - अभिगाप की ज्वाला ममझना और देवसेना--ठहरो, दम ले लो ! मंदेह के गर्न मे गिरने से पहले विवेक का अवलंव ले लो-विजया ! विजया --हताश जीवन कितना भयानक होता है - यह नही जानती हो? उस दिन जिस तीखी छुरी को रखने के लिए मेरी हँसी उड़ाई जा रही थी मैं समझती हूँ कि उसे रख लेना मेरे लिए आवश्यक था। राजकुमारी ! मुझे न छेड़ना। मैं तुम्हारी शत्रु हूँ (क्रोध से देखती है) देवसेना--(आश्चर्य से) क्या कह रही हो ? विजया-वहीं जिसे तुम सुन रही हो । देवसेना-वह तो जैसे उन्मत्त का प्रलाप था अकस्मात् स्वप्न देखकर जग जाते वाले प्राणी की कुतूहल-गाथा थी। विजया ! क्या मैंने तुम्हारे सुख में बाधा दी- मैंने तो तुम्हारे मार्ग को स्वच्छ करने के सिवा रोड़े न बिछाये । विजया-उपकारों की ओट में मेरे स्वर्ग को छिपा दिया, मेरी कामना-लता को समूल उखाड़ कर कुचल दिया। देवसेना-शीघ्रता करने वाली स्त्री ! अपनी असावधानी का दोष दूसरे पर न फेंक । देवसेना मूल्य देकर प्रणय न लिया चाहती। [च्छा इससे क्या । (जाती है) विजया -जाती हो, परंतु सावधान ! - स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य : ४७५