पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४९६

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[भटार्क और प्रपंचबुद्धि का प्रवेश] भटार्क-विजया ! तुम कब आई हो ? विजया-अभी-अभी, तुम्ही को तो खोज रही थी। (प्रपंचबुद्धि को देखकर) आप कौन है ? भटार्क-'योगाचार संघ' के प्रधान श्रमण आर्य प्रपंचबुद्धि । [विजया नमस्कार करती है] प्रपंचबुद्धि -कल्याण हो देवि ! भटार्क से तो तुम परिचित-सी हो, परंतु मुझे भी जान जाओगी। विजया-आर्य ! आपके अनुग्रह-लाभ की बड़ी आकाक्षा है। प्रपंचबुद्धि-शुभे ! प्रज्ञापारमिता-स्वरूपा तारा तुम्हारी रक्षा करे ! क्या तुम सद्धर्म की सेवा के लिए कुछ उत्मर्ग कर सकोगी ? (कुछ सोचकर) तुम्हारे मनोरथ पूर्ण होने मे विघ्न और विलब है। इसलिए तुम्हे अवश्य धर्माचरण करना होगा। विजया-आर्य । मेरा भी एक स्वार्थ है। प्रपंचबुद्धि --क्या ? विजया-राजकुमारी देवसेना का अत ! प्रपंचबुद्धि -और मुझे उग्रतारा की साधना के लिए महास्मशान मे एक राज-बलि चाहिये! भटार्क-यह तो अच्छा सुयोग है। विजया -उसे स्मशान तक ले आना तो मेरा काम है, आगे मैं कुछ न कर सर्केगी। प्रपंचबुद्धि -सब हो जायगा। उग्रतारा की कृपा मे सब कुछ सुसंपन्न होगा। भटार्क-परंतु मैं कृतघ्नता से कलकित होऊँगा, और कदगुप्त से मै किस मुंह से"नहीं"नही प्रपंचबुद्धि -सावधान ! भटार्क | अलग ले जाकर समझाया फिर भी । तुम पहले अनंतदेवी और पुरगुप्त से प्रतिश्रुत हो चुके हो । भटार्क-ओह पाप-पक में लिप्त मनुष्य की छुट्टी नही ! कुकर्म उसे जकड़ कर अपने नागपाश मे बाँध लेता है ! दुर्भाग्य ! [सब का प्रस्थान] मातृगुप्त-(ओट से निकल कर) भयानक कुचक्र ! एक निर्मल कुसुमकली की कुचलने के लिए इतनी बड़ी प्रतारणा की चक्की ? मनुष्य ! तुझे हिंसा का उतना ही लोभ है, जितना एक भूखे भेड़िये को ! तब भी तेरे पास उससे कुछ ४७६ : प्रसाद वाङ्मय