पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४९८

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-सब० बंशी को बस बज जाने दो, मीठी मीड़ों को आने दो, आँख बंद करके गाने दो, जो कुछ हमको आता है- विजया-(स्वगत) भाव-विभोर दूर की रागिनी सुनती हुई यह कुरंगी-सी कुमारी आह ! कैसा भोला मुखड़ा पर नही, नही विजया | सावधान ! प्रति- हिंसा (प्रकट) राजकुमारी ! देखो, यह कोई बडा सिद्ध है, बहाँ तक चलोगी ? देवसेना-चलो, परतु मुझे सिद्ध से क्या प्रयोजन ? जब मेरी कामनाये विस्मृति के नीचे दबा दी गई है, तब वह चाहे स्वय ईश्वर ही हो तो क्या ? तब भी एक कुतूहल है ! चलो- [विजया देवसेना को आगे कर प्रपंचबुद्धि के पास ले जाती है और स्वयं हट जाती है/ध्यान से आँखे खोल कर प्रपंच उसे देखता है] प्रपंचबुद्धि-तुम्हारा नाम देवसेना है ! देवसेना-(आश्चर्य से) हॉ, भगवन ! प्रपंचबुद्धि-तुमको देवमेवा के लिए शीघ्र प्रस्तुत होना होगा। तुम्हारी ललाटलिपि कह रही है कि तुम बडी भाग्यवती हो । देवसेना-कौन-मी देवसेवा ? प्रपंचबुद्धि-यह नश्वर शरीर, जिसका उपभोग तुम्हारा प्रेमी भी न कर सका और न करने की आशा है, देवसेवा मे अर्पित करो। उग्रतारा तुम्हारा परम मंगल करेगी। देवसेना-(सिहर उठती है) क्या मुझे अपनी बलि देनी होगी ? (घूमकर देखती है) विजया ' विजया ! प्रपंचबुद्धि-डरो मत, तुम्हार। मृजन इसीलिए था। नित्य की मोह-ज्वाला मे जलने से तो यही अन्छा है कि तुम एक साधक का उपकार करती हुई अपनी ज्वाला को शात कर दो। देवसेना-परन्तु""कापालिक | एक और भी आगा मेरे हृदय मे है। वह पूर्ण नही हुई । म डरती नही हू, केवल उमके पूर्ण होने की प्रतीक्षा है। विजया के स्थान को मैं कदापि न ग्रहण करूंगी। उमे भ्रम है, यदि वह छूट जाता। प्रपंचबुद्धि--(उठ कर उसका हाथ पकड़ कर खड्ग उठाता है) पर मुझे ठहरने का अवकाग नही। उग्रतारा की इच्छा पूर्ण हो । दवसेना-प्रियतम ! मेरे देवता । युवराज ! तुम्हारी जय हो ! (सिर झुकाती है/पीछे से मातृगुप्त आकर प्रपंच का हाथ पकड़ कर नेपथ्य में ले जाता है।देवमेना चकित होकर स्कंद का आलिंगन करती है) [दृश्यांतर] ४७८: प्रसाद वाङ्मय