पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५१०

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जीर्ण शरीर का अवलंब वाछनीय नही। कह देती हूँ, हट जाओ, नही तो तुम्हारी समस्त कुमंत्रणा को एक फूंक मे उडा दूंगी ! अनन्तदेवी -क्या इतना साहस ! तुच्छ स्त्री ! जानती है कि किसके साथ बात कर रही है ? मैं वही हूँ-जो अश्वमेध-पराक्रम कुमारगुप्त से बालो को सुगंधित करने के लिए गंधचूर्ण जलवाती थी-जिसकी एक तीखी कोर से गुप्त-साम्राज्य डांवाडोल हो रहा है, उसे तुम एक सामान्य स्त्री ! जा-जा, ले अपने भटार्क को, मुझे कीटपतंगो की आवश्यकता नही। परंतु स्मरण रखना, मैं हूँ अनंतदेवी ! तेरी कूटनीति के कण्टकित कानन की दावाग्नि-तेरे गर्व-शैल-शृंग का वज्र ! मै वह आग लगाऊँगी, जो प्रलय के समुद्र से भी न बुझे ! (जाती है) विजया--मै कही की न रही । इधर भयानक पिशाचो की लीला-भूमि, उधर गभीर समुद्र ! दुर्बल रमणी-हृदय थोडी आँच मे गरम, और शीतल हाथ फेरते ही ठंढा ! क्रोध से अपने आत्मीय जनो पर विप उगल देना ! जिनको क्षमा की आवश्यकता है-जिन्हे स्सह के पुरस्कार की नाछा है, उनकी भूल पर कठोर तिरस्कार, और जो पराये है, उनके माथ दौडती हुई सहानुभूति | यह मन का विष, यह बदलने वाले हृदय की क्षुद्रता है। ओह ! जब हम अनजान लोगो की भूल और दुग्वो पर क्षमा या सहानुभूति प्रकट करते है, तो भूल जाते है कि यहाँ मेरा स्वार्थ नहीं है। क्षमा और उदारता वही मन्ची है, जहाँ, स्वार्थ की भी बलि हो । अपना अतुल धन और हृदय दूसरो के हाथ मे देकर चलू--कहां-किधर ? [उन्मत्त भाव से प्रस्थान करना चाहती है/पदच्युत नायक का प्रवेश] नायक-शात हो। विजया-कौन? नायक-एक सैनिक ? विजया-दूर हो, मुझे सैनिको से घृणा है। नायक -क्यो सुन्दरी विजया--क्रूर ! केवल अपने झूठे मान के लिए, बनावटी बडप्पन के लिए, अपना दम दिखलाने के लिए एक अनियत्रित हृदय का लोहो से खेल विडंबना है किसकी रक्षा, किस दीन की सहायता के लिए तुम्हारे अस्त्र है ? नायक--साम्राज्य की रक्षा के लिए ! विजया-झूठ--तुम सबको जंगली हिंस्र पशु होकर जन्म लेना था। डाकू ! थोड़े-से ठीकरो के लिए अमूल्य मानव-जीवन का नाश करने वाले, भयानक भेडिये ! नायक-(स्वगत) पागल हो गई है क्या ? विजया-स्नेहमयी देवसेना का शका से तिरस्कार किया, मिलते दुए स्वर्ग को धमंड से तुच्छ समझा, देव-तुल्य स्कन्दगुप्त से विद्रोह किया, किस लिए ? केवल ? ४९. :प्रसाद वाङ्मय