पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५१४

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[देवनंद का प्रस्थान] मातृगुप्त-मालिनी ! अवगुण्ठन हटाओ, सिर ऊँचा करो, मैं अपना प्रम निवारण करना चाहता हूँ। (मालिनी अवगुंठन हटाकर मातृगुप्त की ओर देखती है/मातृगुप्त चकित होकर उसको देखता है) मातृगुप्त-तुम कौन हो-मालिनी ? छलना ! नहीं-नहीं, भ्रम है ! मालिनी--नहीं मातृगुप्त, मैं ही हूँ ! अवगुण्ठन केवल इसलिए था कि मैं तुम्हें मुख नहीं दिखला सकती थी ! मातृगुप्त ! मैं वही हूँ। मातृगुप्त-तुम ? नहीं मेरी मालिनी ! मेरे हृदय की आराध्य देवता- वेश्या ! असम्भव । परन्तु नहीं, वही है मुख ! यद्यपि विलास ने उस पर अपनी मलिन छाया डाल दी है --उस पर अपने अभिशाप की छाप लगा दी है, पर वही हो? हा दुर्दैव ? मालिनी--दुर्दैव ? मातृगुप्त--मैं आज तक तुम्हें पूजता था। तुम्हारी पवित्र स्मृति को कंगाल की निधि की भांति छिपाये रहा। मूर्ख मैं "आह मालिनी ! मेरे शून्य भाग्याकाश के मन्दिर का द्वार खोलकर तुम्ही ने उनींदी उषा के सदृश झाँका था, और मेरे भिखारी-संसार पर स्वर्ण बिखेर दिया था--तुम्हीं ने मालिनी ! तुमने सोने के लिए नन्दन का अम्लान कुसुम बेंच डाला। जाओ मालिनी ? राज-कोष से अपना धन ले लो। मालिनी-(मातृगुप्त के पैरों पर गिरती हुई) एक बार क्षमा कर दो मातृगुप्त ! मातृगुप्त--मैं इतना दृढ़ नहीं हूँ मालिनी कि तुम्हें इस अपराध के कारण भूल नाऊँ । पर वह स्मृति-दूसरे प्रकार की होगी। उसमें ज्वाला न होगी। धुंआ उठेगा और तुम्हारी मूर्ति धुंधली होकर सामने आवेगी ! जाओ ! (मालिनी का प्रस्थान चर का प्रवेश) चर--कुमारामात्य की जय हो ! मातृगुप्त- |--क्या समाचार है-सम्राट् का पता लगा ? चर--नहीं। पंचनद हूणों के अधिकार में है, और वे काश्मीर पर भी आक्रमण किया चाहते हैं । (प्रस्थान) मातृगुप्त--तो सब गया ! मेरी कल्पना के सुन्दर स्वप्नों का प्रभात हो रहा है। नाचती हुई नीहार-कणिकाओं पर तीखी किरणों के भाले ! मोह ! सोचा था कि देवता जागेंगे, एक बार आर्यावर्त में गौरव का सूर्य चमकेगा, और पुण्य-कर्मों से समस्त पाप-पंक धुल जायेंगे, हिमालय से निकली हुई सप्तसिंधु तथा गंगा-यमुना की घाटियां किसी आर्य-सद्गृहस्थ के स्वच्छ और पवित्र आंगन-सी, भूखी जाति के ४९४ : प्रसाद वाङ्मय