पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५२१

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कोई भी इसका उपयुक्त रक्षक हो। ओह ! जाने दो, भया सब कुछ गया ! मनं लाने को कोई वस्तु न रही। कर्तव्य-विस्मृत, भविष्य-अंधकारपूर्ण, लक्ष्यहीन दो और अनंत सागर का संतरण है-- बजा दो वेणु मनमोहन ! बजा दो हमारे सुप्त जीवन को जगा दो। विमल स्वातंत्र्य का वस मंत्र फंको। हमें सब भीति-वंधन से छुड़ा दो। सहारा उन अंगुलियों का मिले हों ? रसीले राग में मन को मिला दो। तुम्हीं सब हो इसी की चेतना हो? इसे आनंदमय जीवन बना दो । [प्रार्थना में झुकता है|उन्मत्त भाव से शर्वनाग का प्रवेश] शर्वनाग--छीन लिया, गोद मे छीन लिया, सोने के लोभ से मेरे लालों को शूल पर के मास की तरह मेकने लगे ! जिन पर विश्व-भर का भंडार लुटाने को मैं प्रस्तुत था, उन्ही गुदड़ी के लालों को राक्षमो ने--हूणों ने--लुटेरो ने-लूट लिया ! किसन आहो को सुना--भगवान ने ? नही, उस निष्ठुर ने नही सुना ! देखते हुए भी न देखा ! आते थे कभी एक पुकार पर, दौड़ते थे कभी आधी आह पर, अवतार लेते थे कभी आर्यों की दुर्दशा से दुखी होकर, अब नही। देश के हर कानन चिता बन रहे है। धधकती हुई नाश की प्रचंर ज्वाला दिग्दाह कर रही है। अपनी ज्वालामुखियों को बर्फ को मोटी चादर से छिपाये हिमालय मौन है, पिघलकर क्यों जा मिलता ? अरे जड, मूक. बधिर, प्रकृति के टीले ! (उन्मत्त भाव से प्रस्थान) स्कंदगुप्त--कौन है ? यह शर्वनाग है क्या ? अंतर्वेद भी हूणो से पादाक्रांत हुआ ? अरे आर्यावर्त के दुर्दैव ! बिजली के अक्षरो से क्या भविष्यत् लिख रहा है ? भगवन् ! यह अर्धोन्मत्त शर्व ! आर्य साम्राज्य की हत्या का कैसा भयानक दृश्य है ? कितना बीभत्स है। सिंहों को विहारस्थली में शृगाल-वृद सड़) लोथ नाच रहे हैं। [पगली रामा का प्रवेश रामा-(स्कंद को देखकर) लुटेरा है तू भी ! क्या लेगा, मेरी सूखी हड्डियाँ ? तेरे दांतों से टूटेंगी ? देख तो--(हाथ बढ़ाती है) स्कंदगुप्त-कौन ? रामा ! रामा-(आश्चर्य से) मैं रामा हूँ ! हां, जिसकी संतान को हूणों ने पीस मला ! (व्हर कर) मेरी संतान ! इन अभागों की-सी वे नही थी। वे तो तलवार स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य : ५०१ नही समुद्र !