पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५३५

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जियें तो सदा उसी के लिए, यही अभिमान रहे, यह हर्ष । निछावर कर दें हम सर्वस्व, हमारा प्यारा भारतवर्ष । सब-(समवेत स्वर में) जय ! राजाधिराज स्कंदगुप्त की जय ! [हूण-सेना के साथ खिगिल का प्रवेश] खिंगिल -बच गया था भाग्य से, फिर सिंह के मुख में आना चाहता है ! भीषण परशु के प्रहारों से तुम्हें अपनी भूल रमरण हो जायगी ! स्कन्दगुप्त-यह बात करने का स्थल नही है । [घोर युद्ध/खिगिल घायल होकर बंदी होता है/सम्राट् को बचाने में पर्णदत्त की मृत्यु/गरुडध्वज की छाया में वह लिटाया जाता है] स्कन्दगुप्त -धन्य वीर आर्य पर्णदत्त ! सब-आर्य पर्णदत्त की जय ! आर्य साम्राज्य की जय । [बंदी-वेश में पुरगुप्त और अनंतदेवी के साथ धानुसेन का प्रवेश] स्कन्दगुप्त-मेरी सोतेली माता ! इम विजय से आप सुखी होंगी ! अनंतदेवी--क्यों लज्जित करते हो स्कन्द ! तुम भी तो मेरे पुत्र हो ! स्कन्दगुप्त-आह ' यदि यही होता मेरी विमाता ! तो देश की इतनी दुर्दशा न होती। अनंतदेवी--मुझे क्षमा करो सम्राट् ! स्कन्दगुप्त -माता का हृदय सदैव क्षम्य है। तुम जिस प्रलोभन से इस दुष्कर्म में प्रवृत्त हुई-वही तो कैकेयी ने भी किया था। तुम्हारा इसमें दोष नही। जब तुमने आज मुझे पुत्र कहा, तो मै भी तुम्हें माता ही समझूगा परंतु कुमारगुप्त के इस अग्नितेज को तुमने अपने कुत्सित कर्मो की राख से ढंक दिया- पुरगुप्त ! पुरगुप्त-देव ! अपराध हुआ-(पैर पकड़ता है) स्कन्दगुप्त-भटार्क ! मैंने तुम्हारी प्रतिज्ञा पूरी की। लो, आज इस रणभूमि में पुरगुप्त को युवराज बनाता हूँ। .देखना, मेरे बाद जन्म-भूमि की दुर्दशा न हो। (रक्त का टीका पुरगुप्त को लगाता है) भटार्क - देवव्रत ! अभी आपकी छत्रछाया में हम लोगों को बहुत सी विजय प्राप्त करनी है, यह आप क्या कहते हैं ? स्कन्दगुप्त--क्षत-जर्जर शरीर अब बहुत दिन नहीं चलेगा, इसी से मैंने भावी सम्राज्य-नीति की घोषणा कर दी है। इस हूण को छोड़ दो और कह दो कि सिंधु के पार देश मे कभी आने का साहस न करे । खिगिल-आर्य सम्राट् ! आपकी आज्ञा शिरोधार्य है। [जाता है|दृश्यांतर] स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य : ५१५