पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५४

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दूसरा दृश्य (शिविर में चंद्रगुप्त और चंडविक्रम) चंद्रगुप्त-अजी जाकर महामंत्री से कह दो कि मैं अस्वस्थ हूँ, इससे थोड़ी देर में मंत्रणागृह में आऊंगा। (स्वगत) इन झंझटों से घड़ी भर भी अवकाश नहीं। चंडविक्रप-किन्तु महाराज ! ऐसे रण-प्रांगण में आप क्यों सुस्त हो रहे हैं कुछ समझ में नहीं आता ? आज पांच दिन से समस्त सैनिक लोग व्यग्र मुख से आप से आज्ञा की आशा कर रहे हैं । चंद्रगुप्त -वयस्य चंडविक्रम । युद्ध कोई खिलवाड़ तो है नहीं, कि जब इच्छा हुई अकारण सैनिकों का नाश कर दिया जाय। यह तो शत्रु की विशेष गतिविधि पर ध्यान रखकर किया जाता है जिसमें अपनी हानि न हो। चंडविक्रम-(धीरे से) पर मैं देख रहा हूं कि महाराज के हृदय-पट पर कोई अलक्षित चित्रकार नया रंग भर रहा है । चंद्रगुप्त-(चौंककर) क्या कहा, क्या ? तुम तो व्यर्थ ही शंका कर रहे हो। चंडविक्रम-(हंसकर) महाराज ! शंका किसलिये करूं। चंद्रगुप्त --(छिपाते हुए) कुछ नही, हमने समझा कि तुम कुछ दूसरी बात समझ रहे हो। चंडविक्रम--महाराज ! नव धन जल सींची जा चुकी जो धरा है। हृदय सरस जिसका भाव ही से भरा है । वह प्रगट नं वैसी आई देती लखाई । तृण हरित बताते हो गयी है सिंचाई ।। चंद्रगुप्त -इस कविता का भाव मेरी समझ नही आमा । चंडविक्रम- के कानन में खिला जो। मलिन्द से मिला जो॥ गुलाब वो गन्ध छिपा सके नही। समीर-नि:श्वास कहे जहाँ तहीं॥ चंद्रगुप्त-(मुस्कराकर) यह तो तुमने अच्छा मधवा का अर्थ विडोजा किया। चंडविक्रम -क्षमा कीजिये, अब मुझे प्रगट कहना पड़ा। अच्छा, कम आप मृगया खेलते-खेलते किधर चले गये थे? हम लोगों से जब आप अलग हुए तब मालूम होता है कि मृग तो आपके हाथ लगा नहीं वरन् आप ही किसी मृगनयनी की वरुनी के जाल में फंस गये । मैं तो यही समझ सका, आगे जो कुछ हो। वसन्त प्रेम भरा ३८: प्रसाद वाङ्मय